क्या देवकी कुमार बोस ने महात्मा गांधी से जीवन का सबक लिया?
सारांश
Key Takeaways
- देवकी कुमार बोस का जीवन अनुशासन और साधारणता का प्रतीक रहा।
- उन्होंने महात्मा गांधी के सिद्धांतों को अपनाते हुए सिनेमा में योगदान दिया।
- उनकी फिल्में भक्ति, नैतिकता और संस्कृति का संदेश देती हैं।
- उन्होंने भारतीय सिनेमा में संगीत और भावनाओं का अद्भुत मिश्रण किया।
- उनका कार्य आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
मुंबई, २४ नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक चरण में जब मूक फिल्में धीरे-धीरे बोलती फिल्मों में परिवर्तित हो रही थीं, तब एक नाम उभरा ‘देवकी कुमार बोस’। वे एक प्रतिभाशाली और विचारशील फिल्म निर्देशक थे। उनके कार्य में हमेशा संगीत, भावनाएँ और भक्ति की झलक देखने को मिलती थी।
शायद ही किसी को मालूम होगा कि उनकी जीवन यात्रा पर महात्मा गांधी का प्रभाव कितना गहरा था। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी। देश की स्वतंत्रता की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने अपने निर्णयों में गांधी के आदर्शों को अपनाया।
देवकी कुमार बोस का जन्म २५ नवंबर १८९८ को पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में हुआ था। उनके पिता एक वकील थे, जिन्होंने देवकी को शिक्षा का महत्व सिखाया। बचपन से ही उनमें अनुशासन और साधारण जीवन जीने की आदत थी। जब वह कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे, तब महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चल रहा था। देवकी बोस इस आंदोलन से प्रभावित होकर कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता के लिए सक्रिय हो गए।
इस समय उन्होंने कोलकाता में स्थानीय अखबार ‘शक्ति’ का संपादन किया। उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत खुद के बलबूते की। एक छोटी सी दुकान खोली और लोगों से संपर्क बढ़ाया। इसी दौरान उनकी मुलाकात धीरेन गांगुली से हुई, जो उस समय के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक थे। गांगुली ने देवकी की लेखनी की क्षमता को पहचाना और उन्हें कोलकाता आने तथा उनके लिए पटकथा लिखने का प्रस्ताव दिया। यह उनका पहला कदम था, जो उन्हें भारतीय सिनेमा की ओर ले गया।
देवकी बोस ने कई मूक और बोलती फिल्मों की पटकथा लिखी और कुछ फिल्मों का निर्देशन भी किया। उनकी शुरुआती फिल्मों को अपेक्षित सफलता नहीं मिली, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। १९३२ में उन्होंने न्यू थियेटर्स में काम करना शुरू किया। उनकी फिल्म ‘चंडीदास’ को दर्शकों ने बहुत पसंद किया और इसके साथ ही देवकी बोस का नाम रोशन हुआ। उन्होंने अपने करियर में भारतीय शास्त्रीय संगीत और रवींद्र संगीत का अद्भुत मिश्रण किया, जो उनकी फिल्मों की पहचान बन गई।
उनकी सबसे प्रसिद्ध फिल्मों में ‘सीता’ (१९३४) और ‘सागर संगमे’ (१९५९) शामिल हैं। फिल्म ‘सीता’ को वेनिस अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में गोल्ड मेडल मिला, जिससे देवकी बोस का अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली। ‘सागर संगमे’ को बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में गोल्डन बियर के लिए नामांकित किया गया और इसे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला। उन्होंने जीवनभर फिल्म के माध्यम से न केवल मनोरंजन किया बल्कि दर्शकों को भक्ति, नैतिकता और संस्कृति का संदेश भी दिया।
देवकी बोस का जीवन अनुशासन और साधारणता का उदाहरण रहा। वे शराब या मसालेदार खाने से दूर रहते थे, हमेशा सफेद कपड़े पहनते थे, और संयमित जीवन जीते थे। हालांकि, उनके पास शानदार मर्सिडीज जैसी कारें और झील किनारे बड़ा घर था, लेकिन उन्होंने अपने जीवन के मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। उनकी करीबी मित्र और अभिनेत्री कानन देवी उन्हें ‘चोलोचित्रर संन्यासी’ यानी ‘चलचित्र के संन्यासी’ कहती थीं।
देवकी कुमार बोस का निधन १७ नवंबर १९७१ को कोलकाता में हुआ।