क्या 'अंधा कानून' में अमिताभ के लिए आनंद बक्शी ने लिखा गीत, बाद में पड़ा पछताना?

सारांश
Key Takeaways
- आनंद बक्शी का करियर 40 वर्षों का था।
- उन्होंने 4,000 से अधिक गाने लिखे।
- प्यार, दर्द और देशभक्ति जैसे भावनाओं को अपने गीतों में बखूबी शामिल किया।
- कभी-कभी छोटी गलतियाँ भी बड़े पछतावे का कारण बन सकती हैं।
- उनकी रचनाएँ आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं।
मुंबई, 20 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। बॉलीवुड में कुछ ऐसे गीतकार हैं जिन्होंने अपने शब्दों के माध्यम से जज्बातों को सीधे दिलों में पहुंचाया है। आनंद बक्शी उन्हीं में से एक हैं। उन्होंने अपने लगभग 40 साल के करियर में 4,000 से ज्यादा गाने लिखे। उनके गीतों की विशेषता यह थी कि वे आम बोलचाल की भाषा में होते थे, जिनमें भावनाएं स्पष्ट रूप से झलकती थीं। चाहे वह प्यार हो, दर्द हो, दोस्ती हो या देशभक्ति, उन्होंने हर तरह की भावनाओं को सुंदर शब्दों में पिरोया।
हालांकि, इतने सफल और अनुभवी होने के बाद भी एक समय ऐसा आया जब उन्हें अपने एक गाने को लेकर पछतावा हुआ। यह कहानी 1983 में आई फिल्म 'अंधा कानून' से जुड़ी है। उनके बेटे राकेश आनंद बक्शी ने इसे अपनी जीवनी 'नग्मे किस्से बातें यादें' में साझा किया। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने एक मुस्लिम किरदार की भूमिका निभाई थी। वह जां निसार खान के रूप में थे, जो एक पूर्व वन अधिकारी था और जिसे एक शिकारी की हत्या के झूठे आरोप में जेल में डाल दिया गया था।
'नग्मे किस्से बातें यादें' में बताया गया है कि निर्देशक ने बक्शी साहब को फिल्म की कहानी अमिताभ बच्चन के नाम से सुनाई, लेकिन यह नहीं बताया कि बिग बी का किरदार किस धर्म से संबंधित है।
आनंद बक्शी ने इस फिल्म के लिए एक गाना लिखा जो उस समय बेहद लोकप्रिय हुआ। इस गाने की कुछ पंक्तियाँ 'रोते-रोते हंसना सीखो, हंसते-हंसते रोना, जितनी चाभी भरी राम ने, उतना चले खिलौना' आज भी लोग गुनगुनाते हैं। यहाँ 'राम' का उल्लेख भगवान विष्णु के अवतार के रूप में किया गया है।
जब आनंद बक्शी को पता चला कि फिल्म में अमिताभ बच्चन एक मुस्लिम किरदार निभा रहे हैं, तो उन्हें बहुत पछतावा हुआ। उन्होंने यह बात अपने बेटे को बताई।
बेटे ने अपनी किताब में किस्सा साझा करते हुए कहा, "मुझसे गलती हो गई थी कि गाना लिखने से पहले मैंने निर्देशक से हीरो के किरदार का नाम और उसका मजहब नहीं पूछा था। अगर मुझे पता होता कि अमिताभ फिल्म में एक मुस्लिम किरदार निभा रहे हैं, तो मैं उस किरदार की तहजीब और मजहब के अनुसार गाना लिखता।"
आनंद बक्शी का जन्म 21 जुलाई 1930 को रावलपिंडी (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार भारत आकर लखनऊ में बस गया। बचपन से ही आनंद को शब्दों और गीतों से गहरा लगाव था। फिल्मों में काम करने की ख्वाहिश लेकर उन्होंने नौसेना भी जॉइन की, ताकि मुंबई आ सकें। उनका असली मकसद मुंबई आकर फिल्मों में अपना नाम बनाना था।
उन्होंने अपने करियर की शुरुआत 1958 में आई फिल्म 'भला आदमी' में गाने लिखने से की। उन्हें चार गानों के लिए 150 रुपये मिले थे।
काफी मेहनत के बाद आनंद को असली पहचान 1965 में रिलीज हुई फिल्म 'जब जब फूल खिले' से मिली। इस फिल्म के लिए उन्होंने 'ये समां समां है ये प्यार का', 'परदेसियों से ना अखियां मिलाना', और 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' गाने लिखे।
चार दशकों के करियर में उन्होंने 'मेरे महबूब कयामत होगी', 'चिट्ठी न कोई संदेश', 'चांद सी महबूबा हो मेरी', 'झिलमिल सितारों का', 'सावन का महीना पवन करे शोर', 'बागों में बहार है', 'मैं शायर तो नहीं', 'झूठ बोले कौआ काटे', 'कोरा कागज था ये मन मेरा', 'तुझे देखा तो यह जाना सनम', 'हमको हमी से चुरा लो', 'उड़ जा काले कावां', 'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो', 'रूप तेरा मस्ताना, टिप टिप बरसा पानी', और 'इश्क बिना क्या जीना यारों' जैसे नायाब गाने लिखे।
आनंद बक्शी ने अपनी जिंदगी में बड़ा संघर्ष किया, लेकिन कभी हार नहीं मानी। 30 मार्च 2002 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।