क्या जानना चाहते हैं राणा उदयसिंह के अद्भुत जीवन के बारे में?

सारांश
Key Takeaways
- राणा उदयसिंह का जीवन साहस और संघर्ष की मिसाल है।
- उदयपुर की स्थापना मेवाड़ की सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने का एक कदम था।
- उनकी नीतियों ने मुगल शक्ति के खिलाफ मेवाड़ को मजबूत बनाए रखा।
- उनकी दूरदर्शिता ने भारतीय संस्कृति को सहेजा।
- उदयसिंह का योगदान भारतीय इतिहास में अमिट रहेगा।
नई दिल्ली, 3 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय इतिहास के पन्नों में ऐसे अनेक वीर योद्धा मिलते हैं, जिन्होंने भारत माता की आन-बान और शान को बनाए रखते हुए अपनी संस्कृति की पहचान को भी सहेजने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए। इनमें से एक प्रमुख नाम है राणा उदयसिंह, जिनकी योजना और दूरदर्शिता के लिए उन्हें जाना जाता है।
वे मेवाड़ के महान योद्धा महाराणा प्रताप के पिता थे और सिसोदिया वंश के गौरवमयी शासकों में से एक माने जाते हैं। उदयसिंह ने अपने शासनकाल में मेवाड़ की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए अद्वितीय प्रयास किए, जिससे उनकी विरासत अमर हो गई।
4 अगस्त 1522 को चित्तौड़ में जन्मे राणा उदयसिंह का जीवन सफर सरल नहीं रहा। उनके पिता राणा सांगा की मृत्यु के बाद, उनके भाई रतन सिंह द्वितीय को राजगद्दी सौंपी गई। रतन सिंह द्वितीय की 1531 में हत्या कर दी गई, जिसके बाद उनके भाई महाराणा विक्रमादित्य सिंह ने शासन संभाला।
विक्रमादित्य के शासन में, 1535 में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया, तब उदयसिंह को सुरक्षित रखने के लिए बूंदी भेज दिया गया।
1537 में बनवीर ने महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर सिंहासन पर कब्जा कर लिया और उदयसिंह को भी खत्म करने की योजना बनाई। लेकिन उदयसिंह की धाय पन्ना दाई ने अपने पुत्र चंदन की बलि देकर उन्हें बचाया और कुंभलगढ़ ले गईं। 1540 में मेवाड़ के कुलीनों द्वारा कुंभलगढ़ में उनका राज्याभिषेक किया गया।
उदयसिंह की पहली पत्नी महारानी जैवंताबाई सोनगरा से उनके सबसे बड़े बेटे महाराणा प्रताप का जन्म उसी वर्ष हुआ। कहा जाता है कि उनकी बीस पत्नियां और 25 बेटे थे।
राज्याभिषेक के बाद, उदयसिंह के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने दुश्मनों से निपटना था। 1544 में शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर हमला किया। उस समय उदयसिंह ने मेवाड़ में गृहयुद्ध का सामना किया और उनके पास शेरशाह से लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे। उन्होंने चित्तौड़ को शेरशाह को इस शर्त पर सौंप दिया कि वह मेवाड़ के लोगों को नुकसान नहीं पहुंचाएगा। शेरशाह ने यह शर्त मान ली क्योंकि उसे यह ज्ञात था कि चित्तौड़ की घेराबंदी लंबी और महंगी होगी।
जब उदयसिंह और उनकी परिषद को लगा कि चित्तौड़ सुरक्षित नहीं है, तो उन्होंने मेवाड़ की राजधानी को सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करने की योजना बनाई। 1559 में गिरवा क्षेत्र में निर्माण कार्य शुरू हुआ और उसी वर्ष एक मानव-निर्मित झील बनी, जिससे खेती को बढ़ावा मिला। यह झील 1562 में पूरी हुई और नई राजधानी को जल्द ही उदयपुर के नाम से जाना जाने लगा।
1562 में मालवा सल्तनत के आखिरी शासक बाज बहादुर को राणा उदयसिंह ने शरण दी, जिसका राज्य अकबर ने मुगल साम्राज्य में मिला लिया था। अकबर ने इसे एक अवसर मानते हुए अक्टूबर 1567 में मेवाड़ पर आक्रमण किया। 23 अक्टूबर 1567 को अकबर ने उदयपुर के पास अपना शिविर स्थापित किया।
कविराज श्यामलदास के अनुसार, उदयसिंह ने युद्ध परिषद का आयोजन किया। रईसों ने सलाह दी कि वे चित्तौड़ में एक सेना छोड़कर राजकुमारों के साथ पहाड़ियों में शरण लें। उदयसिंह ने चित्तौड़ को अपने विश्वासपात्र सरदारों जयमल और पत्ता के हवाले कर दिया। अकबर ने चार महीने की घेराबंदी के बाद 25 फरवरी 1568 को चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया, जिसके बाद शहर में व्यापक लूटपाट हुई।
1572 में गोगुंदा में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद, जगमाल ने गद्दी हथियाने की कोशिश की, लेकिन मेवाड़ के सरदारों ने उसे रोक दिया और 1 मार्च 1572 को महाराणा प्रताप सिंह को राजा बनाया।
राणा उदयसिंह का योगदान मेवाड़ की रक्षा और विकास में महत्वपूर्ण रहा, और उनकी नीतियों ने मेवाड़ को मुगल शक्ति के खिलाफ मजबूत बनाए रखा।