क्या एलवी प्रसाद भारतीय सिनेमा के स्तंभ हैं, जिन्होंने तीन भाषाओं की पहली बोलती फिल्मों में अभिनय किया?

सारांश
Key Takeaways
- एलवी प्रसाद ने भारतीय सिनेमा की तीन भाषाओं की पहली बोलती फिल्मों में अभिनय किया।
- उन्होंने सामाजिक मुद्दों को संवेदनशीलता से उठाया।
- उनकी फ़िल्में आज भी दर्शकों के दिलों में बसी हुई हैं।
- उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार जैसे सम्मान मिले।
- उनका योगदान भारतीय सिनेमा के विकास में महत्वपूर्ण रहा।
नई दिल्ली, 21 जून (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय सिनेमा में जब बहुभाषी योगदान, तकनीकी प्रगति और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर कहानियों की चर्चा होती है, एलवी प्रसाद का नाम गर्व से लिया जाता है। वे केवल एक फिल्म निर्माता या निर्देशक नहीं थे, बल्कि फिल्म उद्योग के एक सशक्त स्तंभ थे, जिन्होंने तीन भाषाओं (हिंदी, तमिल और तेलुगु) की पहली बोलती फिल्मों में अभिनय करके इतिहास रचा।
17 जनवरी 1908 को आंध्र प्रदेश के इलुरु तालुका के एक साधारण किसान परिवार में जन्मे एलवी प्रसाद ने बचपन से ही रंगमंच और नृत्य में रुचि दिखाई। पढ़ाई में रुचि न होने के कारण वे जल्दी ही पारंपरिक शिक्षा छोड़कर अपने सपनों का पीछा करने लगे।
कम उम्र में उन्होंने मुंबई की ओर रुख किया, जहाँ उन्हें कई संघर्षों का सामना करना पड़ा। हालांकि, इन संघर्षों ने उन्हें सिनेमा की कला को गहराई से समझने का अवसर प्रदान किया।
एलवी प्रसाद का भारतीय सिनेमा में योगदान अद्वितीय और ऐतिहासिक है। उन्होंने भारत की तीन प्रमुख भाषाओं की पहली बोलती फिल्मों में अभिनय किया। भारत और हिंदी की पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' (1931) में उन्होंने एक छोटी भूमिका निभाई।
इसके अलावा, तमिल की पहली बोलती फिल्म 'कालिदास' और तेलुगु की पहली बोलती फिल्म 'भक्त प्रह्लाद' में भी उन्होंने अभिनय किया। यह उपलब्धि न केवल उन्हें भारत में विशिष्ट बनाती है, बल्कि यह दर्शाती है कि वह प्रारंभ से ही सिनेमा की परिवर्तनशील धारा के अग्रदूत थे।
उन्होंने अभिनय से आगे बढ़ते हुए फिल्म निर्देशन और निर्माण में भी अपनी अलग पहचान बनाई। उनकी फिल्मों में सामाजिक मुद्दों का चित्रण बड़े ही संवेदनशील तरीके से किया जाता था। हिन्दी सिनेमा में उन्होंने 'शारदा', 'छोटी बहन', 'बेटी बेटे', 'हमराही', 'मिलन', 'राजा और रंक', 'खिलौना', 'एक दूजे के लिए' जैसी फिल्में बनाकर दर्शकों का दिल जीत लिया।
साल 1959 में आई फिल्म 'छोटी बहन' भारतीय सिनेमा की वह दुर्लभ कृति थी, जिसने भाई-बहन के रिश्ते को केंद्र में रखा। इस फिल्म का गीत 'भइया मेरे राखी के बंधन को निभाना' आज भी रक्षा बंधन पर हर घर में गूंजता है और इस भावनात्मक रिश्ते को अभिव्यक्त करने वाला सबसे लोकप्रिय गीत माना जाता है।
उनकी प्रतिभा को न केवल दर्शकों ने सराहा, बल्कि देश ने भी उनका सम्मान किया। 1982 में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया, जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान है। इसके अलावा, फिल्म 'खिलौना' के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड भी दिया गया।
उनके नाम पर स्थापित एलवी प्रसाद आई इंस्टीट्यूट और प्रसाद आईमैक्स जैसे संस्थान, आज भी उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। जहां एक ओर इन संस्थानों में तकनीकी रूप से उन्नत फिल्म निर्माण और प्रदर्शनी का कार्य होता है, वहीं सामाजिक सरोकारों के लिए कार्यरत आई इंस्टीट्यूट नेत्र चिकित्सा के क्षेत्र में सराहनीय काम कर रहा है।
एलवी प्रसाद की फिल्में सामाजिक सच्चाइयों का आईना भी थीं। उन्होंने कथानक, संवाद और भावनाओं पर विशेष ध्यान देते हुए एक ऐसी सिनेमाई भाषा विकसित की, जो दर्शक के दिल तक पहुंचती थी। उनकी फिल्मों के संगीत, भावनात्मक गहराई और मानवीय रिश्तों की प्रस्तुति आज भी लोगों को भावुक कर देती है।
एलवी प्रसाद 22 जून 1994 को इस दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन उनकी बनाई फिल्में, उनके संस्थान और उनके योगदान आज भी भारतीय सिनेमा को दिशा दे रहे हैं। वे उन विरले फिल्मकारों में से थे, जिन्होंने तकनीकी नवाचारों के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं को बराबरी से स्थान दिया।