क्या कुढ़नी में भाजपा-राजद के बीच कांटे की टक्कर है? जानें इस बार का चुनावी समीकरण
सारांश
Key Takeaways
- कुढ़नी विधानसभा क्षेत्र का चुनावी इतिहास बहुत जटिल है।
- भाजपा और राजद के बीच की टक्कर बेहद महत्वपूर्ण है।
- यहां के स्थानीय मुद्दे चुनावी नतीजों को प्रभावित करते हैं।
- कृषि और कारीगरी क्षेत्र के विकास पर जोर दिया जा रहा है।
- कुढ़नी के मतदाता जातिगत समीकरणों के आधार पर मतदान करते हैं।
पटना, 28 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित कुढ़नी विधानसभा सीट केवल एक चुनावी क्षेत्र नहीं है, बल्कि यह कठिन मुकाबलों, बदलते समीकरणों और जनता की उम्मीदों का संगम है। यह सीट मुजफ्फरपुर लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आती है, लेकिन इसका राजनीतिक मिजाज बिल्कुल अलग है, जहां हार-जीत का अंतर अक्सर चौंकाने वाला होता है।
कुढ़नी के चुनावी इतिहास से पता चलता है कि यह सीट किसी एक पार्टी की नहीं रही है। पहले जनता दल यूनाइटेड (जदयू) का प्रभुत्व था, जहाँ मनोज कुमार सिंह ने लगातार तीन चुनावों में जीत हासिल की। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में समीकरण बदलने लगे और यह सीट हाथ से फिसलने लगी।
2015 में भाजपा के उम्मीदवार केदार प्रसाद गुप्ता ने बड़े अंतर से जीत हासिल की, जो 11,570 वोटों के अंतर से हुई थी।
2020 का चुनाव कुढ़नी के इतिहास में एक रोमांचक मुकाबला साबित हुआ। इस बार राजद के अनिल कुमार सहनी ने भाजपा के केदार प्रसाद गुप्ता को बेहद करीबी मुकाबले में हराया। उनकी जीत का अंतर इतना कम था कि आज भी चर्चा का विषय है - केवल 712 वोटों का अंतर।
यह जीत अस्थायी साबित हुई। एक कानूनी मामले में निर्णय के बाद अनिल सहनी की विधानसभा सदस्यता रद्द कर दी गई और 2022 में कुढ़नी में उपचुनाव हुआ, जिसमें केदार प्रसाद गुप्ता ने शानदार वापसी की।
कुढ़नी वैशाली जिले की सीमा से सटा हुआ है, और इसकी असली पहचान यहां के लाह से बने कारीगरी वाले काम में है, विशेष रूप से 'लहठी' (चूड़ियां) का शानदार कारोबार। जब भी आप इस सीट का जिक्र करते हैं, तो लहठी की खनक के साथ चुनावी सरगर्मी की गूंज सुनाई देती है।
इस क्षेत्र की प्रमुख मांगों में मनियारी को प्रखंड घोषित कराना शामिल है। इसके अलावा, कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण किसानों के लिए सिंचाई सुविधाओं की कमी एक गंभीर मुद्दा है। सबसे बड़ी मांग लहठी के व्यापार से जुड़ी है।
चुनावी दृष्टि से, यहां वैश्य, मुस्लिम और यादव मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इन तीनों समुदायों का झुकाव जिस ओर होता है, अक्सर जीत उसी के पाले में जाती है, यही कारण है कि हर पार्टी जातिगत समीकरणों को साधने की कोशिश करती है।