क्या असदुद्दीन और मायावती के लिए आई खुशखबरी? बिहार की जनता ने 'पीके' को क्यों रूलाया?
सारांश
Key Takeaways
- एनडीए की ऐतिहासिक जीत
- महागठबंधन का सूपड़ा साफ
- प्रशांत किशोर की विफलता
- ओवैसी का सीमांचल में प्रभाव
- बसपा की अच्छी स्थिति
नई दिल्ली, 14 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। बिहार का चुनाव कई दृष्टिकोण से ऐतिहासिक रहा। 2010 के बाद एनडीए ने बिहार में इतनी बड़ी जीत दर्ज की है। वहीं, राजद और कांग्रेस की स्थिति भी बिहार में लंबे समय बाद बदतर हुई है। बिहार की जनता ने वोटों की ऐसी सुनामी चलाकर महागठबंधन का सूपड़ा साफ कर दिया।
इस चुनाव में मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच था। लेकिन तीसरी ताकत के रूप में बिहार में उभरने की कोशिश करने वाले 'पीके' यानी प्रशांत किशोर की जनसुराज का भी सूपड़ा साफ होता नजर आया। जनसुराज ने इस चुनाव में जिनको सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया, वह राजद है, जिसके वोट बैंक में उनकी पार्टी ने सेंध लगाई।
दूसरी ओर, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने भी राहत की सांस ली है। दरअसल, ओवैसी की पार्टी ने पिछली बार का बदला इस बार के चुनाव में राजद से लिया है। जब उनके जीते 5 में से 4 विधायक को राजद ने अपने खेमे में कर लिया था। ऐसे में ओवैसी ने सीमांचल की 6 सीटों पर अपना प्रभाव बरकरार रखा है।
यहां सीमांचल में तेजस्वी को डबल झटका लगा है। जहां ओवैसी की पार्टी लीड कर रही है, वहीं 18 सीटों पर एनडीए के उम्मीदवार आगे हैं। इसका मतलब यह है कि महागठबंधन का रास्ता इन्हीं पार्टियों ने ब्लॉक कर रखा है।
इसके साथ ही बिहार की रामगढ़ सीट पर हाथी अपने पांव तले सबको कुचलता नजर आ रहा है। यहां बसपा को बढ़त मिली हुई है, अर्थात इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी के लिए भी खुशखबरी मिलती दिख रही है।
प्रशांत किशोर जैसे नेता के लिए बिहार की जनता का संदेश साफ था। पीके की पार्टी जनसुराज ने 0 पर निपटती नजर आई। पीके 3 साल तक बिहार में घूमते रहे और उनके 98 प्रतिशत उम्मीदवारों की जनता ने जमानत जब्त करा दी। ऐसे में उनके बड़बोलेपन के दावे के मुताबिक, ऐसा लगता है कि वे सियासत में एंट्री करने से पहले ही एग्जिट करने के लिए तैयार हैं।
कई मीडिया चैनलों पर प्रशांत किशोर ने चुनाव से पहले दावा किया था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड 25 से ज्यादा सीटों पर नहीं जीत पाएगी। यदि ऐसा हुआ, तो वे राजनीति छोड़ देंगे। वे यहाँ तक दावा कर आए थे कि या तो उनकी पार्टी 150 से ज्यादा सीटें जीतेगी या 10 से भी कम।
बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर को इतना कॉन्फिडेंस विधानसभा उपचुनावों में पार्टी को 10 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल करने के कारण मिला था। उन्होंने सोचा कि थोड़ी और मेहनत करके वे अपनी छवि और स्पष्ट कर सकेंगे। लेकिन, उनकी पार्टी तो वोटकटवा बनकर भी सामने नहीं आ पाई।
इसके साथ ही, जनता के बीच प्रशांत की आवाज नहीं पहुंचने का एक कारण यह भी रहा कि उन्होंने तेजस्वी को चैलेंज करके पीछे हट गए। ऐसे में बिहार की जनता को उनकी राजनीति व्यवसाय जैसी लगने लगी। अगर तेजस्वी को चैलेंज देते हुए प्रशांत राघोपुर से चुनाव लड़ जाते, तो उनकी पहचान कम से कम अरविंद केजरीवाल जैसी हो जाती।
प्रशांत किशोर अपनी सभाओं में कहते रहे कि वे जाति और धर्म की राजनीति नहीं करेंगे। लेकिन, जब पार्टी उम्मीदवारों को उतारने की बारी आई, तो उन्होंने भी अन्य पार्टियों की तरह जाति और धर्म के आधार पर ही उम्मीदवारों का चयन किया। बिहार में शराबबंदी का विरोध भी प्रशांत किशोर को ले डूबा। जिस तरह महिला मतदाता इस बार नीतीश के साथ खड़ी दिखीं, उसने प्रशांत किशोर की नींद उड़ा दी।
प्रशांत किशोर शायद यह समझ नहीं पाए थे कि यह बिहार है, यहां जाति, समुदाय, स्थानीय समीकरण, सामाजिक गठबंधन का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसे में जनसुराज की व्यवस्था-परिवर्तन वाली अपील बेशक यहां के लोगों को आकर्षक लगी थी। लेकिन, वे यह आकलन करने में चूक गए कि यहां जातिगत राजनीति की जमीन पर ही राजनीति होती है।