क्या दक्षिण का काशी है श्रीकालहस्ती, जहां वायु रूप में शिवलिंग को पुजारी भी नहीं छूते?

सारांश
Key Takeaways
- श्रीकालहस्ती मंदिर का वायु रूप शिवलिंग अद्वितीय है।
- यह मंदिर हमेशा खुला रहता है, चाहे ग्रहण हो या नहीं।
- यहाँ के भक्त अपनी इच्छाओं के लिए पवित्र बरगद के पेड़ के चारों ओर रंग-बिरंगे धागे बांधते हैं।
- मंदिर की ऐतिहासिकता और वास्तुकला में अद्भुतता है।
- यह मंदिर राहु-केतु पूजा के लिए भी प्रसिद्ध है।
चित्तूर, २४ जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। महादेव और उनके भक्तों को समर्पित सावन का पावन महीना चल रहा है। देशभर में भोलेनाथ के कई मंदिर हैं, जिनके दर्शन से भक्तों का कल्याण होता है। रहस्यों और चमत्कारों से भरा एक ऐसा मंदिर आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित है, जिसे श्रीकालहस्ती मंदिर कहा जाता है। इसे 'दक्षिण के काशी' के नाम से भी जाना जाता है, जहां भगवान शिव वायु रूप में विराजमान हैं, और पुजारी भी इस शिवलिंग का स्पर्श नहीं करते।
इस मंदिर का रहस्य मकड़ी, हाथी और काल से जुड़ा है, और चंद्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण के समय मंदिर के कपाट कभी बंद नहीं होते हैं।
आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति के निकट स्थित श्रीकालहस्ती मंदिर, जिसे श्रीकालहस्तीश्वर मंदिर भी कहा जाता है, एक पवित्र स्थल है जहां भगवान शिव वायु लिंग के रूप में पूजित हैं। इस मंदिर की विशेषता यह है कि इसे पुजारी भी स्पर्श नहीं करते। यह मंदिर न केवल आध्यात्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि मकड़ी, सर्प और हाथी से जुड़ी रहस्यमयी कहानियों के लिए भी जाना जाता है।
स्वर्णमुखी नदी के किनारे स्थित यह मंदिर प्राकृतिक सुंदरता और शांति का अद्भुत संगम है। यहाँ एक पवित्र बरगद का पेड़ है, जिसे स्थल वृक्ष कहते हैं, और यह भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करने के लिए प्रसिद्ध है। भक्त इस पेड़ के चारों ओर रंग-बिरंगे धागे बांधकर अपनी इच्छाएं मांगते हैं, जो मंदिर की सुंदरता को बढ़ाते हैं।
यह मंदिर भक्ति, विश्वास और चमत्कारों की गाथाओं का खजाना है। श्रीकालहस्ती का नाम तीन भक्तों, मकड़ी (श्री), सर्प (काला), और हाथी (हस्ती) से लिया गया है। एक कथा के अनुसार, इन तीनों ने भगवान शिव की आराधना की और अपने प्राण त्याग दिए थे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें मोक्ष प्रदान किया। मंदिर के शिवलिंग के आधार पर मकड़ी, दो हाथी दांत, और पांच सिर वाला सर्प दर्शाया गया है, जो उनकी भक्ति का प्रतीक है।
एक अन्य कथा में शिकारी कन्नप्पा ने शिवलिंग से रक्त बहता देख अपनी आंखें अर्पित कर दीं। उनकी निष्ठा से शिव ने उनकी आंखें लौटाईं और मोक्ष दिया। इसी तरह, पार्वती माता ने एक श्राप से मुक्ति के लिए यहाँ तप किया और ‘ज्ञान प्रसुनांबिका देवी’ के रूप में पूजी गईं। घनकाला नामक भूतनी ने भी भैरव मंत्र का जाप कर यहाँ साधना की थी।
मंदिर का आंतरिक हिस्सा ५वीं सदी में पल्लव काल में बना, जबकि मुख्य संरचना और गोपुरम ११वीं सदी में चोल सम्राट राजेंद्र चोल प्रथम ने बनवाए। १६वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य ने १२० मीटर ऊँचा राजगोपुरम बनवाया, जो द्रविड़ वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। मंदिर की दीवारों पर चोल शासकों की नक्काशी और १५१६ में विजयनगर सम्राट कृष्णदेवराय द्वारा बनवाए गए गोपुरम इसकी ऐतिहासिकता को दिखाते हैं।
श्रीकालहस्ती पंचभूत स्थलों में से एक है, जहाँ शिव वायु लिंग के रूप में पूजित हैं। इसे ‘दक्षिण का कैलाश’ या ‘दक्षिण की काशी’ कहा जाता है। यह मंदिर राहु-केतु पूजा के लिए भी प्रसिद्ध है, जो ज्योतिषीय दोषों को दूर करती है। यह एकमात्र मंदिर है जो सूर्य और चंद्र ग्रहण के दौरान भी खुला रहता है।
मंदिर के आसपास श्री सुब्रह्मण्य स्वामी मंदिर, पुलिकट झील और चंद्रगिरी किला जैसे आकर्षण हैं। सावन के साथ ही महा शिवरात्रि पर हजारों भक्त यहाँ भक्ति में लीन होते हैं।