क्या मध्य प्रदेश के राजगढ़ में 'छोड़ा' उत्सव जल्लीकट्टू की तरह मनाया गया?

सारांश
Key Takeaways
- छोड़ा उत्सव गौसेवा और समृद्धि का प्रतीक है।
- यह उत्सव धार्मिक सद्भावना और भाईचारे को बढ़ावा देता है।
- उत्सव की तैयारी दीपावली की रात से शुरू होती है।
- ग्रामीणों की आस्था इस परंपरा को जीवित रखती है।
- सुरक्षा के लिए पुलिस बल तैनात किया जाता है।
राजगढ़, 22 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले के सारंगपुर क्षेत्र के सुल्तानिया गांव में तमिलनाडु के प्रसिद्ध जल्लीकट्टू की तर्ज पर सदियों पुरानी 'छोड़ा उत्सव' परंपरा को ग्रामीण आज भी पूरे उत्साह और भक्ति के साथ निभा रहे हैं।
ग्रामीण इस उत्सव को गौसेवा और समृद्धि का प्रतीक मानते हैं, जिसकी शुरुआत भगवान देवनारायण ने की थी।
दीपावली की रात इस उत्सव की तैयारी शुरू होती है। तुलसी की एक प्रजाति के पौधे को ताजे चमड़े में लपेटकर और लकड़ी के डंडे में बांधकर करीब 2 क्विंटल का दोना तैयार किया जाता है। अमावस्या की रात देवी-देवताओं के स्थान पर हवन कर इसे शुद्ध किया जाता है, जिसके बाद इसे देव शक्ति का वास माना जाता है।
पड़वा (दीपावली के अगले दिन) को इस 'छोड़ा' को दिनभर गौ माता के साथ खेलाया जाता है। प्राचीन मान्यता है कि जब अशुद्ध चमड़े को गाय के पास लाया जाता है, तो वह उसे सींग मारकर दूर फेंकती है। यह प्रक्रिया बार-बार होती है, और जब दोना सींग से मारने पर गिरता है, तो इसे बच्चों को टोना-टोटका से बचाने के लिए उपयोग किया जाता है।
ग्रामीणों बाबूलाल नागर पटेल, देवेंद्र नागर, जगदीश धाकड़, सुनील नागर और गिरवर नागर ने बताया कि यह उत्सव गांव में खेड़ा पति हनुमान के आशीर्वाद से कई सदियों से मनाया जा रहा है। यह परंपरा धार्मिक सद्भाव और भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए मनाई जाती है। बुजुर्गों के अनुसार, भगवान देवनारायण और उनके काका ने मिलकर यह खेल शुरू किया था।
सुबह से शाम 4 बजे तक चलने वाले इस उत्सव को देखने के लिए सारंगपुर क्षेत्र ही नहीं, बल्कि जिले भर से हजारों लोग आते हैं। यह उत्सव बिना किसी भेदभाव या द्वेष के सर्वधर्म के लोग मनाते हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य गौसेवा और गोपालन को बढ़ावा देना है। इस दिन को मनाने के लिए गांव के हर घर में गाय पालने की परंपरा है। यह परंपरा कई वर्षों से चल रही है, जिसे हम आगे बढ़ा रहे हैं।