स्मृति शेष: सच्चिदानंद सिन्हा कौन थे, जिन्हें समाजवादी विचारधारा का अग्रदूत माना गया?
सारांश
Key Takeaways
- सच्चिदानंद सिन्हा का समाजवाद में महत्वपूर्ण योगदान रहा।
- उन्होंने हिंसा-रहित संघर्ष का समर्थन किया।
- उनकी किताबें व्यवहारिक संघर्ष को प्रेरित करती हैं।
- साहित्य और संस्कृति में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण था।
- उनका निधन भारतीय समाजवादी आंदोलन के लिए एक युग का अंत है।
पटना, 19 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय समाजवाद के महान स्तंभ और प्रखर चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा अब हमारे बीच नहीं रहे। उनका निधन बुधवार को मुजफ्फरपुर में हुआ। उनकी आयु 96 वर्ष थी। सच्चिदानंद केवल एक विचारक नहीं थे, बल्कि एक ऐसे महान व्यक्तित्व थे, जिन्होंने समाजवाद की हिंसा-रहित संघर्ष की धारा को आकार देने का कार्य किया।
सच्चिदानंद का जन्म 30 अगस्त 1928 को मुजफ्फरपुर के साहेबगंज के परसौनी गांव में हुआ। वह एक साधारण किसान परिवार से थे। प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव से प्राप्त करने के बाद, वे छात्र राजनीति में शामिल हो गए। उनके व्यक्तित्व में एक विशेष आकर्षण था, जिसके चलते वे जल्दी ही जयप्रकाश नारायण के प्रिय बन गए। जयप्रकाश का प्रभाव यह था कि उन्होंने समाजवादी आंदोलन से अपने आप को अलग नहीं किया।
डॉ. राम मनोहर लोहिया के एडिटोरियल बोर्ड में शामिल होने के बाद उनके जीवन को एक नई दिशा मिली। यहां उन्होंने समाजवाद को भारतीय संदर्भ में ढालने का प्रयास किया। उनका मानना था कि समाजवाद की पहुँच केवल आर्थिक समानता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक और नैतिक बदलाव का भी एक माध्यम है।
सच्चिदानंद ने भारतीय समाजवाद को एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रदान किया। उनकी लिखी हुई किताबें न केवल सैद्धांतिक हैं, बल्कि व्यवहारिक संघर्ष को भी प्रेरित करती हैं।
उनकी कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं: संस्कृति विमर्श, संस्कृति और समाजवाद और जिंदगी: सभ्यता के हाशिये पर।
सच्चिदानंद सिन्हा जीवनभर एक लेखक, विचारक, वक्ता, पत्रकार, संपादक और कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रहे। उनकी विचारधारा समाजवादी विचारधारा के भीतर ही थी, लेकिन उन्होंने समाजवादी राजनीति और उसके नेताओं की आलोचना करने में विश्वास व्यक्त किया।
उन्हें समाजवादी आंदोलन का एक प्रमुख स्तंभ माना जाता है, क्योंकि उन्होंने हिंसा रहित समाजवाद पर जोर दिया। बिहार की राजनीति में उन्हें एक संस्थान के रूप में देखा जाता है।
उनका योगदान केवल राजनीति तक सीमित नहीं था। वे साहित्य और संस्कृति के ज्ञाता थे। समाजवादी विचारों को लोकप्रिय बनाने में उनकी पत्रिकाओं का बड़ा योगदान रहा। सच्चिदानंद का निधन केवल बिहार के लिए नहीं, बल्कि देश के लिए एक अपूरणीय क्षति है। उनके साथ भारतीय समाजवादी आंदोलन के लिए एक युग का अंत हो गया।