क्या आप जानते हैं कथक क्वीन 'सितारा' के बारे में?
सारांश
Key Takeaways
- नृत्य में महिलाओं की भूमिका
- कथक की पुनर्जागरण
- संघर्ष और सफलता की कहानी
- कला के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन
- महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत
नई दिल्ली, 7 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। कोलकाता में जन्मी धनलक्ष्मी, जिन्हें संसार सितारा देवी के नाम से जानता है, भारतीय शास्त्रीय नृत्य की एक अद्वितीय पहचान रही हैं। कथक की 'क्वीन' या 'नृत्य सम्राज्ञी' के रूप में प्रसिद्ध सितारा देवी ने अपने जीवन में न केवल कला को एक नई दिशा दी, बल्कि समाज की परंपराओं को तोड़कर महिलाओं के लिए एक प्रेरणा बनीं।
सितारा देवी का जन्म ८ नवंबर १९२० को कोलकाता के एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पंडित सुखदेव महाराज एक प्रसिद्ध कथक नर्तक और संस्कृत विद्वान थे, जो बनारस घराने से संबंधित थे। घर में उन्हें 'धन्नो' कहकर पुकारा जाता था। सुखदेव महाराज ने अपनी तीन बेटियों, अलका नंदा, तारा और सितारा, को कथक सिखाने का निर्णय लिया, जो उस समय में असामान्य था। उस दौर में महिलाओं को नृत्य सिखाना वर्जित माना जाता था, फिर भी, सुखदेव महाराज ने एक नृत्य विद्यालय खोला, जहाँ उनकी बेटियाँ और अन्य बच्चे नृत्य की शिक्षा प्राप्त करते थे।
सितारा देवी की प्रतिभा बचपन से ही उजागर होने लगी। मात्र ६ वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति दी, जिसने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। एक समाचार पत्र ने लिखा, 'एक बालिका धन्नो ने अपने नृत्य से दर्शकों को आश्चर्यचकित किया।'
इस समाचार ने उनके पिता को प्रेरित किया और उन्होंने 'धन्नो' का नाम बदलकर 'सितारा देवी' रख दिया। लेकिन यह यात्रा सरल नहीं थी। ८ वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया गया, लेकिन सितारा ने स्कूल जाने और नृत्य सीखने की जिद की। जब ससुराल वालों ने मना किया, तो विवाह टूट गया। समाज ने उन्हें बहिष्कृत कर दिया, लेकिन सितारा ने हार नहीं मानी। उन्होंने पढ़ाई छोड़कर पूर्ण रूप से नृत्य पर ध्यान केंद्रित किया। १० वर्ष की उम्र में उनकी पहली एकल प्रस्तुति हुई, जो कोलकाता के एक थिएटर में सफल रही।
सितारा देवी ने कथक को केवल शास्त्रीय रूप तक सीमित न रखकर इसमें ऊर्जा, लयकारिता और भावपूर्ण अभिव्यक्ति का समावेश किया। उनके फुटवर्क तेज, घुंघरुओं की झनकार मंत्रमुग्ध करने वाली और मुद्राएं जीवंत होती थीं। वे कथक के अलावा भरतनाट्यम, लोक नृत्यों और यहां तक कि रूसी बैले में भी निपुण थीं।
१६ वर्ष की उम्र में मुंबई के आतिया बेगम पैलेस में उनके नृत्य को देखकर रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'नृत्य सम्राज्ञी' का खिताब दिया। १९३० में वे मुंबई आ गईं, जहां निर्देशक निरंजन शर्मा ने उन्हें फिल्म 'उषा हरण' में कास्ट किया। सितारा ने 'दुर्गा', 'वीर बाबरू', 'जवानी की आवाज' जैसी फिल्मों में अभिनय और कोरियोग्राफी की। 'मदर इंडिया' में उनके गीत 'दुख भरे दिन बीते' की कोरियोग्राफी प्रसिद्ध हुई। 'मुगल-ए-आजम' के 'मुझे पनघट पे नंदलाल' में भी उनका योगदान था। लेकिन शास्त्रीय नृत्य पर प्रभाव पड़ने के कारण उन्होंने फिल्में छोड़ दीं। इसके बजाय, वे रॉयल अल्बर्ट हॉल (लंदन), विक्टोरिया मेमोरियल और विश्व महोत्सवों में प्रस्तुतियां देने लगीं। उन्होंने कथक को पुनर्जीवित किया, जो मुगल काल के बाद लुप्तप्राय हो गया था।
सितारा देवी ने मधुबाला, रेखा, माला सिन्हा और काजोल जैसी अभिनेत्रियों को कथक सिखाया। उनकी शैली में बनारस घराने की मिठास और लखनऊ की नजाकत का मिश्रण था। उन्होंने रातभर चलने वाली कथक महफिलों को पुनः जीवंत किया।
सितारा देवी को पद्मश्री (१९७०) और अन्य पुरस्कार प्राप्त हुए, लेकिन उन्होंने पद्म भूषण ठुकरा दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि यह उनके योगदान के अनुरूप नहीं था। सांगली सम्मेलन में उन्हें 'कथक रत्न' कहा गया। लेकिन निजी जीवन में दर्द भरा रहा। पहली शादी टूटने के बाद उन्होंने नाजिर अहमद खान से विवाह किया, जो १६ वर्ष बड़े थे। इसके लिए उन्होंने अपना धर्म भी बदल लिया। यह वैवाहिक जीवन भी असफल रहा। फिर भी, नृत्य ने उन्हें सहारा दिया।
२५ नवंबर २०१४ को ९४ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी नृत्य कला आज भी लाखों दिलों में बसती है। सितारा देवी की विरासत आज भी प्रेरणा स्रोत है। उन्होंने कथक को लैंगिक बंधनों से मुक्त किया और महिलाओं को कला में आगे बढ़ने का साहस दिया।