क्या 13वीं शताब्दी के इस मंदिर में बालकृष्ण के दर्शन नहीं होते?

सारांश
Key Takeaways
- उडुपी का मंदिर 13वीं शताब्दी का है।
- यहाँ बालकृष्ण के दर्शन 'नवग्रह किटिकी' से होते हैं।
- कनकदास की प्रेरणादायक कथा को आज भी याद किया जाता है।
- यहाँ अन्न दान की परंपरा है।
- उडुपी पहुँचने के लिए अच्छी सड़क और रेल सेवाएँ हैं।
उडुपी, 11 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। श्री कृष्ण जन्माष्टमी (15-16 अगस्त) के पर्व की तैयारी में सभी कृष्ण भक्तों का उत्साह बेहद बढ़ गया है। देशभर में नंदलाल के अनेक मंदिरों में भव्य तैयारियां चल रही हैं, जो भक्ति और आश्चर्य का अद्भुत संगम प्रस्तुत करते हैं। ऐसा ही एक प्रसिद्ध मंदिर कर्नाटक के उडुपी में स्थित है, जहाँ छोटी-छोटी खिड़कियों के माध्यम से नंदलाल के दर्शन होते हैं।
दक्षिण भारत के इस मंदिर को 'दक्षिण का मथुरा' कहा जाता है, जो भगवान कृष्ण की एक अद्वितीय और आकर्षक मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ बालकृष्ण की मूर्ति को सीधे नहीं, बल्कि 'नवग्रह किटिकी' नामक नौ छिद्रों वाली खिड़की से देखा जाता है। यह मंदिर अपनी अनोखी परंपराओं और कनकदास की भक्ति कथा के लिए भी जाना जाता है।
इस मंदिर की स्थापना 13वीं शताब्दी में वैष्णव संत श्री माधवाचार्य ने की थी, और यह भक्ति तथा आध्यात्मिकता का प्रतीक है। कर्नाटक पर्यटन विभाग के अनुसार, यहाँ बालकृष्ण की मूर्ति को भगवान कृष्ण की सबसे सुंदर मूर्तियों में से एक माना जाता है। मंदिर की एक विशेषता है 'कनकना किंदी' या 'नवग्रह किटिकी', जो एक छोटी खिड़की है। इसके पीछे एक प्रेरणादायक कथा है। किंवदंती के अनुसार, भक्त कनकदास, जो नीची जाति के थे, को मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। उन्होंने हार नहीं मानी और मंदिर की दीवार में एक छोटी दरार से भगवान से प्रार्थना की। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण की मूर्ति ने पश्चिम की ओर मुड़कर उन्हें दर्शन दिए। आज भी भक्त इसी खिड़की से नंदलाल के दर्शन करते हैं। पास ही कनकदास मंडप में उनकी मूर्ति स्थापित है, जो उनकी भक्ति की गाथा को जीवंत रखती है।
मंदिर में कई अनूठी परंपराएँ हैं। यहाँ हर दिन सुबह 4:30 बजे से रात 9:30 बजे तक भक्तों के लिए द्वार खुले रहते हैं। मंदिर में अन्न दान की परंपरा भी विशेष है, जहाँ सभी भक्तों को मुफ्त भोजन दिया जाता है।
इस मंदिर की विशेषताओं में से एक उडुपी पर्याय उत्सव भी है, जो हर दो साल में मनाया जाता है। यह मंदिर के प्रबंधन को आठ मठों (पुट्टीगे, पेजावर, पलिमारु, अदामारु, शिरुर, सोधे, कृष्णपुरा और कनियुरु) के बीच हस्तांतरित करने का प्रतीक है। इस दौरान भगवान कृष्ण की मूर्ति को स्वर्ण रथ और ब्रह्म रथ पर सजाकर झांकी निकाली जाती है।
मंदिर परिसर में एक गोशाला भी है, जो भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र है। उडुपी संस्कृत शिक्षा का भी प्रमुख केंद्र है, जहाँ आठ मठों के माध्यम से यह भाषा सिखाई जाती है। पास में अनंतेश्वर और चंद्रमौलेश्वर मंदिर भी हैं, जो श्री कृष्ण मंदिर से पुराने हैं। अनंतेश्वर मंदिर वह स्थान है, जहाँ माधवाचार्य ने आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त की थी।
उडुपी पहुँचना आसान है। यह बेंगलुरु से 400 किमी और मंगलुरु हवाई अड्डे से 60 किमी दूर है। रेल और सड़क मार्ग से उडुपी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। मंदिर शहर के केंद्र में स्थित हैं और पास में मालपे, कापू बीच और सेंट मैरी द्वीप जैसे पर्यटक स्थल भी हैं।