क्या मेक इन इंडिया का कमाल: एम्स के नेतृत्व में 'सुपरनोवा' स्टेंट रिट्रीवर का सफल परीक्षण हुआ?
सारांश
Key Takeaways
- सुपरनोवा स्टेंट रिट्रीवर ने स्ट्रोक के उपचार में महत्वपूर्ण सफलता पाई है।
- यह मेक इन इंडिया पहल का एक सफल उदाहरण है।
- इसका परीक्षण ८ सेंटर्स में किया गया है।
- यह उपकरण किफायती है, जिससे अधिक मरीजों तक पहुंच संभव है।
- इसकी सफलता ने भारत को ग्लोबल स्ट्रोक केयर में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बना दिया है।
नई दिल्ली, १३ दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। हर साल लगभग १७ लाख भारतीय स्ट्रोक का शिकार होते हैं, लेकिन महंगे उपकरणों के कारण अधिकांश मरीजों तक जीवनरक्षक मैकेनिकल थ्रॉम्बेक्टॉमी (क्लॉट हटाने की प्रक्रिया) नहीं पहुंच पाती। अब दिल्ली के एम्स ने इस क्षेत्र में एक नई उपलब्धि हासिल की है।
देश का पहला स्वदेशी (मेक इन इंडिया) क्लिनिकल ट्रायल 'ग्रासरूट' (ग्रेविटी स्टेंट-रिट्रीवर सिस्टम फॉर रीपरफ्यूजन ऑफ लार्ज वेसल ऑक्लूशन स्ट्रोक ट्रायल) सफल रहा, जिसमें सबसे उन्नत सुपरनोवा स्टेंट रिट्रीवर ने उत्कृष्ट परिणाम प्रस्तुत किए।
एम्स के न्यूरोइमेजिंग एंड इंटरवेंशनल न्यूरोरेडियोलॉजी विभाग के प्रमुख और ट्रायल के नेशनल प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर डॉ. शैलेश बी. गायकवाड़ ने कहा, "यह ट्रायल भारत में स्ट्रोक के इलाज के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है।"
ट्रायल के प्रारंभिक निष्कर्ष प्रतिष्ठित जर्नल ऑफ न्यूरोइंटरवेंशनल सर्जरी (जेएनआईएस) में प्रकाशित हुए हैं। यह स्ट्रोक के गंभीर मामलों (लार्ज वेसल ऑक्लूजन) में जीवन रक्षक साबित हो सकता है।
इससे पहले, मैकेनिकल थ्रॉम्बेक्टॉमी ट्रायल की सफलता दर बहुत ऊंची रही है। ब्लड फ्लो की बहाली में बेहतरीन परिणाम सामने आए। ब्रेन ब्लीड का प्रतिशत केवल 3.1 फीसदी रहा और मृत्यु दर 9.4 फीसदी है। 90 दिनों बाद ५० फीसदी मरीजों में फंक्शनल इंडिपेंडेंस देखने को मिला, यानी वे अपने काम स्वयं करने में सक्षम हो गए थे।
यह उपकरण विदेशी उपकरणों की तुलना में काफी किफायती है, जिससे अधिक मरीजों तक मैकेनिकल थ्रॉम्बेक्टॉमी की पहुंच संभव हो सकेगी।
यह मेक इन इंडिया की एक बड़ी उपलब्धि है। भारत अब ग्लोबल स्ट्रोक केयर में योगदान कर रहा है।
इस वर्ष सीडीएससीओ (सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन) ने डेटा स्वीकार कर इसे भारत में रूटीन उपयोग के लिए मंजूरी दे दी है।
ग्रासरूट इंडिया ट्रायल ने जानलेवा स्ट्रोक के उपचार में इस उपकरण की सफलता को प्रमाणित किया। इसका प्रयोग आठ सेंटर्स में किया गया था। विशेषज्ञों ने कहा कि यह ट्रायल मेक-इन-इंडिया पहल के लिए एक मील का पत्थर है और भारत को एडवांस्ड स्ट्रोक केयर में एक वैश्विक खिलाड़ी के रूप में स्थापित करता है।
ट्रायल के वैश्विक प्रधान अन्वेषक डॉ. दिलीप यवगल (यूनिवर्सिटी ऑफ मियामी) ने बताया कि यह डिवाइस सस्ती होने के कारण दक्षिण-पूर्व एशिया में पहले ही 300+ मरीजों का इलाज कर चुका है। अब भारत में सीडीएससीओ की मंजूरी मिलने के बाद यह रूटीन उपयोग के लिए उपलब्ध होगा।