क्या मदन मोहन, गजलों के शहजादे, ने 30 साल बाद फिल्म फेयर अवॉर्ड जीता?

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क्या मदन मोहन, गजलों के शहजादे, ने 30 साल बाद फिल्म फेयर अवॉर्ड जीता?

सारांश

14 जुलाई को हम याद करते हैं मदन मोहन को, एक अद्वितीय संगीतकार जिन्होंने गीतों के माध्यम से दिलों में अमर जज़्बात भरे। उनकी धुनें आज भी हमारी आत्मा को छूती हैं। जानिए कैसे उनकी विरासत बनी आज भी जिंदा।

Key Takeaways

  • मदन मोहन का संगीत आज भी दिलों को छूता है।
  • उन्होंने हिंदी सिनेमा को अद्भुत धुनें दीं।
  • उनकी रचनाएं भावनाओं का गहरा अनुभव देती हैं।
  • मदन मोहन और लता मंगेशकर का रिश्ता अद्वितीय था।
  • उनकी धुनें हर पीढ़ी के लिए अमर हैं।

नई दिल्ली, 13 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। जब सुर जादुई तरीके से दिल में समा जाएं और हर धुन में एक विशेष एहसास हो, तो यकीन मानिए वह संगीत मदन मोहन का है। 14 जुलाई, 1975 को हिंदी सिनेमा ने एक ऐसे जादूगर को खो दिया, जिसने अपनी धुनों से गीतों को अमर करने के साथ-साथ लाखों दिलों में भावनाओं का समंदर बहा दिया। मदन मोहन, जिन्हें लता मंगेशकर 'मदन भैया' और 'गजलों का शहजादा' मानती थीं, एक फौजी से लेकर संगीत के शिखर तक पहुंचने वाले एक अनमोल रत्न थे।

उनकी धुनों में मौजूद 'लग जा गले' की उदासी और 'कर चले हम फिदा' का जोश, आज भी हर सांस में गूंजता है। उनकी पुण्यतिथि पर आइए, उस संगीतकार को याद करें, जिसने सुरों को आत्मा और गीतों को जज़्बातों का रंग दिया।

14 जुलाई सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि उस संगीत सम्राट को याद करने का दिन है, जिसने हिंदी फिल्म संगीत को भावनात्मकता और रूहानियत का अद्भुत संगम दिया। मदन मोहन की पहचान एक संगीतकार के रूप में है, लेकिन वे इससे कहीं बढ़कर थे; वे एक भावना के रचयिता थे जो हर गीत को केवल धुन नहीं, एक जीवंत अनुभव बना देते थे।

उन्होंने सुरों को महज मनोरंजन नहीं, अंतरात्मा की आवाज बना दिया, चाहे वह मोहब्बत की मासूमियत हो, विरह का दर्द हो या देशभक्ति का जुनून। उनकी धुनें हर भाव को संवेदना की सच्ची परिभाषा देती हैं। 14 जुलाई 1975 को भारतीय सिनेमा की सुरमयी दुनिया से एक ऐसा सितारा बुझ गया, जिसकी रोशनी आज भी कानों से होते हुए दिलों तक पहुंचती है।

मदन मोहन का पूरा नाम मदन मोहन कोहली था। वे एक सैनिक, एक रेडियो कलाकार और फिर हिंदी सिनेमा के सबसे रुहानी संगीतकारों में से एक थे। "मदन मोहन: अल्टीमेट मेलोडीज" में उनकी जिंदगी के पन्नों को पलटा गया है। उनके जन्म से लेकर जिंदगी के महत्वपूर्ण पड़ावों का जिक्र है।

मदन मोहन का जन्म 25 जून 1932 को बगदाद में हुआ। शुरुआती शिक्षा लाहौर, फिर मुंबई और देहरादून में हुई। 1943 में वे द्वितीय लेफ्टिनेंट के रूप में भारतीय सेना से जुड़े और द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक सेवा की। लेकिन उनकी आत्मा का संगीत से रिश्ता कहीं गहराई से बंधा था। 1946 में उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ में कार्यक्रम सहायक के रूप में काम करना शुरू किया, जहां उस्ताद फैयाज खान और बेगम अख्तर जैसे दिग्गजों के संपर्क ने उनके भीतर का संगीतकार जाग्रत किया।

1948 में मुंबई वापसी के बाद उन्होंने एसडी बर्मन और श्याम सुंदर जैसे संगीत निर्देशकों के सहायक के रूप में काम किया, लेकिन बतौर स्वतंत्र संगीतकार उनकी असली पहचान बनी 1950 की फिल्म 'आंखें' से। इसके बाद उनका सफर कभी थमा नहीं। लता मंगेशकर की आवाज के साथ उन्होंने जो रचनाएं कीं, वे आज भी अमर गीतों की श्रेणी में आती हैं। लता उन्हें 'मदन भैया' कहकर बुलाती थीं और उन्हें गजलों का शहजादा कहती थीं।

मदन मोहन के सबसे पसंदीदा गायक थे मोहम्मद रफी। 'लैला मजनूं' जैसी फिल्म में जब किसी ने किशोर कुमार की सिफारिश की, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'मजनूं की आवाज तो सिर्फ रफी साहब की हो सकती है।' नतीजा यह हुआ कि यह फिल्म म्यूजिकल हिट बन गई और रफी की आवाज ऋषि कपूर की पहचान।

कुछ गीत ऐसे होते हैं जो समय की सीमाओं को पार कर, आज भी दिल को गहरे तक छू लेते हैं। 'लग जा गले...' (वो कौन थी, 1964) की मधुर धुन और लता मंगेशकर की सौम्य आवाज प्रेम और बिछोह की भावनाओं को एक साथ उकेरती है, मानो हर नोट में एक अनकहा वादा छिपा हो। 'आपकी नजरों ने समझा...' (अनपढ़, 1962) का रोमानी अंदाज और उसकी सादगी भरी धुन प्रेम की गहराई को व्यक्त करती है, जो सुनने वाले को एक अलग ही दुनिया में ले जाती है। 'कर चले हम फिदा...' (हकीकत, 1965) देशभक्ति का ऐसा जज्बा जगाता है कि हर शब्द में बलिदान और गर्व का मिश्रण महसूस होता है। वहीं, 'तुम जो मिल गए हो...' (हंसते जख्म, 1973) की मेलोडी प्रेम की जटिलताओं को उजागर करती है, जो सुनते ही दिल में एक मीठा दर्द जगा देती है। और 'वो भूली दास्तां...' (संजोग, 1961) की उदास धुन बीते हुए पलों की यादों को ताज़ा करती है, मानो कोई पुरानी किताब के पन्ने पलट रहे हों। इन गीतों की धुनें किसी कल्पनालोक की तरह हैं, जो आंखें नम भी करती हैं और दिल में एक अनमोल, मीठा दर्द भी भर देती हैं। ये गीत सिर्फ संगीत नहीं, बल्कि भावनाओं का एक ऐसा खजाना हैं जो हर पीढ़ी के दिल को छूता रहेगा।

राजा मेंहदी अली खान, राजेन्द्र कृष्ण और कैफी आजमी, इन तीनों के साथ मदन मोहन की जुगलबंदी ने हिंदी सिनेमा को अमर गीत दिए। राजेन्द्र कृष्ण की कोमलता, राजा मेंहदी अली की भावनात्मक गहराई और कैफी आजमी की शायरी को मदन मोहन की धुनों ने परवाज दी।

14 जुलाई 1975 को मात्र 51 वर्ष की उम्र में मदन मोहन का देहांत हो गया, लेकिन उनके जाने के बाद भी उनकी संगीत-संपदा आगे जिंदा रही। 2004 में यश चोपड़ा ने फिल्म 'वीर जारा' में उनकी अप्रयुक्त धुनों को इस्तेमाल किया, जिन पर जावेद अख्तर ने नए बोल लिखे। 'तेरे लिए' और 'कभी ना कभी तो मिलोगे' जैसे गीतों ने फिर से मदन मोहन की आत्मा को जिंदा कर दिया। यही वजह है कि उन्हें इस फिल्म के गाने 'तेरे लिए' के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला।

लता मंगेशकर के बिना मदन मोहन अधूरे थे और मदन मोहन के बिना लता के करियर की परिभाषा अधूरी। लता उन्हें राखी बांधा करती थीं और हर बार उनकी धुनों को आवाज देने के लिए तैयार रहती थीं। आशा भोंसले की शिकायतें कि वे सिर्फ लता से गवाते हैं, भी इस बात का प्रमाण हैं कि यह जोड़ी सिनेमा इतिहास की सबसे आत्मीय साझेदारी थी।

मदन मोहन ने लगभग 100 फिल्मों के लिए संगीत दिया। लेकिन संख्या नहीं, बल्कि उनकी धुनों की गुणवत्ता ही उन्हें कालजयी बनाती है। उन्होंने संगीत में सिर्फ सुर नहीं दिए, उन्होंने श्रोताओं को भावनाओं का अनुभव कराया—जैसे धड़कते दिल की आवाज को सुर में ढाल दिया हो।

Point of View

बल्कि यह भावनाओं का गहरा अनुभव भी प्रदान करता था। उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
NationPress
04/09/2025

Frequently Asked Questions

मदन मोहन का जन्म कब हुआ?
मदन मोहन का जन्म 25 जून 1932 को बगदाद में हुआ।
मदन मोहन ने किस फिल्म से अपने करियर की शुरुआत की?
उन्होंने 1950 की फिल्म 'आंखें' से संगीतकार के रूप में अपनी पहचान बनाई।
मदन मोहन की सबसे प्रसिद्ध रचनाएं कौन सी हैं?
उनकी रचनाओं में 'लग जा गले', 'कर चले हम फिदा', और 'आपकी नजरों ने समझा' शामिल हैं।
मदन मोहन का देहांत कब हुआ?
उनका देहांत 14 जुलाई 1975 को हुआ।
क्या मदन मोहन को कोई पुरस्कार मिला था?
हाँ, उन्हें 2004 में फिल्म 'वीर जारा' के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला।