क्या राजनाथ सिंह ने परमवीर चक्र कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया के बलिदान को याद किया?
सारांश
Key Takeaways
- कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया का बलिदान भारतीय सेना की महान परंपराओं का प्रतीक है।
- उन्होंने कांगो में भारतीय शांति सेना का नेतृत्व किया।
- उनका साहस और निस्वार्थता हमें प्रेरित करती है।
- विदेशी धरती पर उन्होंने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया।
- उनका जीवन और बलिदान हमें देश प्रेम सिखाते हैं।
नई दिल्ली, 5 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने परमवीर चक्र विजेता कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया को उनके बलिदान दिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित की।
राजनाथ सिंह ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर लिखा कि परमवीर चक्र विजेता कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया के बलिदान को स्मरण करते हुए हम उन्हें नमन करते हैं। कांगो मिशन में उनके उत्कृष्ट नेतृत्व, विपरीत परिस्थितियों में भी अद्भुत वीरता, और सर्वोच्च बलिदान हमारी सशस्त्र सेनाओं की महान परंपराओं को दर्शाता है।
रक्षा मंत्री ने कहा कि देश उनके साहस और बलिदान को सम्मानित करता है, जो भारत के संकल्प को हमेशा प्रेरित करते हैं। हमारे अनेक वीर सपूतों ने अपनी जान देकर देश की सीमाओं की रक्षा की है, जिनमें कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया का नाम भी शामिल है। उन्होंने विदेशी धरती पर न केवल भारत की शांति सेना का नेतृत्व किया, बल्कि 40 विद्रोहियों को भी मार गिराया और स्वतंत्र भारत के पहले परमवीर चक्र विजेता बने।
1960 में, जब बेल्जियम से स्वतंत्र हुआ अफ्रीकी देश कांगो गृहयुद्ध से जूझ रहा था, तब संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना की जरूरत पड़ी। इस मिशन में तीन हजार भारतीय सैनिकों को कांगो में शांति बहाली का कार्य सौंपा गया। इनमें से एक थे कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया।
कैप्टन सलारिया ने विदेश में ऐसा साहसिक कार्य किया, जो इतिहास में अमर हो गया। यह वीरता हर उस भारतीय को प्रेरित करती है, जो देश की रक्षा के प्रति समर्पित है।
उनका जन्म 29 नवंबर 1935 को शकरगढ़ (पूर्वी पंजाब) में हुआ। बाद में उनका परिवार पंजाब के गुरदासपुर जिले के जांगल गांव में बस गया। गुरबचन सिंह सलारिया ने अपने घर में वीरता की कहानियाँ सुनीं, क्योंकि उनके पिता मुंशीराम ब्रिटिश भारतीय सेना में थे।
1946 में, उन्होंने बैंगलोर के किंग जॉर्ज रॉयल इंडियन मिलिट्री कॉलेज में अपनी शैक्षणिक और सैन्य प्रशिक्षण शुरू किया। इसके बाद, वे खड़कवासला में नेशनल डिफेंस एकेडमी के 9वें बैच में शामिल हुए। 1957 में, उन्हें 1 गोरखा राइफल्स में कमीशन मिला, जो एक प्रसिद्ध इन्फैंट्री रेजिमेंट है।
कांगो में संयुक्त राष्ट्र का ऑपरेशन जुलाई 1960 से जून 1964 तक चला, जिसमें कैप्टन सलारिया को सबसे आगे आने का मौका मिला। कांगो की स्थिति बिगड़ चुकी थी और विद्रोही गुटों ने सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा था।
मार्च 1961 में भारत ने 99 इन्फैंट्री ब्रिगेड को कांगो भेजा, जिसमें कैप्टन सलारिया अपनी यूनिट, 3/1 गोरखा राइफल्स के साथ महत्वपूर्ण भूमिका में थे।
नवंबर 1961 में, सिक्योरिटी काउंसिल ने कांगो में विद्रोही गतिविधियों को रोकने की आवश्यकता पर बल दिया। इससे विद्रोही नेता शोम्बे ने यूएन के खिलाफ हिंसा बढ़ा दी। 5 दिसंबर, 1961 का दिन इतिहास में दर्ज हो गया, जब कैप्टन सलारिया को एक चुनौतीपूर्ण मिशन सौंपा गया।