क्या दिलीप कुमार को 'गांधीवाला' कहकर पुकारा गया था? जेल में भूख हड़ताल का सच!

सारांश
Key Takeaways
- दिलीप कुमार ने फिल्म उद्योग में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- उन्होंने जेल में भूख हड़ताल में भाग लिया।
- उनकी आत्मकथा में जीवन के अनछुए पहलुओं का जिक्र है।
- दिलीप कुमार को गांधीजी के विचारों से गहरा प्रभावित थे।
- उनका रिश्ता सायरा बानो के साथ बहुत मजबूत था।
मुंबई, 6 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। अपने समय के महान अभिनेता दिलीप कुमार ने हिंदी सिनेमा को पांच दशकों से भी अधिक के अपने करियर में एक नई पहचान दी। उनकी हर फिल्म और हर किरदार ने दर्शकों के दिलों में एक खास जगह बनाई। जब वह पर्दे पर आते थे, तो दर्शक सांसें थाम लेते थे। 'ट्रैजडी किंग' के नाम से मशहूर दिलीप कुमार को फिल्मी दुनिया से लेकर आम जनता और राजनीतिज्ञों तक अपार प्यार और सम्मान मिला। लेकिन इतनी शोहरत और इज्जत के बावजूद उनकी जिंदगी में ऐसा एक समय आया जब उन्हें जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा। यह घटना किसी फिल्म की कहानी का हिस्सा नहीं, बल्कि उनकी असली जिंदगी का सच है। इसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा 'द सब्सटेंस एंड द शैडो' में किया है।
'द सब्सटेंस एंड द शैडो' के अनुसार, यह घटना उस समय की है जब देश ब्रिटिश हुकूमत के अधीन था और आजादी की लड़ाई जोरों पर थी। उस समय दिलीप कुमार युवा थे और पुणे में ब्रिटिश आर्मी की कैंटीन में काम कर रहे थे। उन्होंने आजादी का समर्थन करते हुए एक जोरदार भाषण दिया, जिसमें उन्होंने अंग्रेजों की नीतियों की आलोचना की और कहा कि भारत को आजादी मिलनी चाहिए।
ब्रिटिश सरकार ने उनके इस भाषण को गंभीरता से लिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें पुणे के यरवदा जेल में डाल दिया गया, जहां पहले से ही कई स्वतंत्रता सेनानी और सत्याग्रही बंद थे। दिलीप कुमार ने जेल में रहते हुए भूख हड़ताल में हिस्सा लिया और सत्याग्रहियों का समर्थन किया। उस समय सत्याग्रहियों को 'गांधीवाला' कहा जाता था, और दिलीप कुमार को भी इसी नाम से पुकारा गया। हालांकि, उन्होंने जेल में केवल एक रात बिताई, और अगली सुबह एक परिचित मेजर ने उन्हें छुड़वा लिया।
दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसंबर 1922 को पेशावर में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उनका असली नाम यूसुफ खान था। उनका परिवार बाद में भारत आ गया और मुंबई में बस गया। शुरू में उन्हें फिल्मों में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन किस्मत ने कुछ और ही ठानी थी। एक दिन डॉ. मसानी नामक व्यक्ति ने उन्हें बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी से मिलवाया। देविका रानी ने उन्हें कहा कि वह एक्टर बन सकते हैं, और उन्हें 1,250 रुपए प्रति माह की नौकरी का प्रस्ताव दिया। तब यह रकम काफी बड़ी मानी जाती थी। इसी दौरान देविका रानी ने उन्हें नया नाम दिया - 'दिलीप कुमार'।
शुरुआत में दिलीप साहब हिचकिचाए, लेकिन बाद में मान गए। 1944 में फिल्म 'ज्वार भाटा' से उन्होंने एक्टिंग की दुनिया में कदम रखा। प्रारंभिक कुछ फिल्में असफल रहीं, लेकिन फिर उन्होंने कई सुपरहिट फिल्में दीं, जिनमें 'देवदास', 'मुगल-ए-आजम', 'नया दौर', 'राम और श्याम', और 'गंगा जमुना' जैसी फिल्में शामिल हैं। उनकी एक्टिंग की गहराई, आवाज का उतार-चढ़ाव, और आंखों के माध्यम से भावनाएं व्यक्त करने की कला ने उन्हें हिंदी सिनेमा का पहला सुपरस्टार बना दिया। उन्होंने 60 से अधिक फिल्मों में काम किया और हर किरदार में जान फूंकी।
दिलीप कुमार केवल फिल्मों तक सीमित नहीं थे। वह पढ़ाई के शौकीन थे, सूट-टाई पहनना पसंद करते थे, और धर्म, साहित्य और समाज के बारे में अपनी एक अलग राय रखते थे। वह गांधी जी के विचारों से प्रभावित थे और पंडित नेहरू को अपना आदर्श मानते थे। उन्होंने राजनीति में भी कदम रखा और राज्यसभा के सदस्य रहे।
निजी जीवन की बात करें तो उन्होंने अभिनेत्री सायरा बानो से शादी की, जो उम्र में उनसे काफी छोटी थीं, लेकिन उनका रिश्ता बहुत मजबूत और प्यारा था।
दिलीप कुमार ने 7 जुलाई 2021 को 98 वर्ष की आयु में मुंबई के पी.डी. हिंदुजा अस्पताल में अंतिम सांस ली। उनके जाने से केवल एक अभिनेता नहीं, बल्कि एक युग समाप्त हो गया। लेकिन उनकी यादें, फिल्में और किस्से आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं।