क्या डायबिटीज टीबी के लिए बेहद घातक है?

सारांश
Key Takeaways
- डायबिटीज रोग प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर करता है।
- टीबी और डायबिटीज का संबंध गंभीर है।
- सख्त ग्लाइसेमिक नियंत्रण आवश्यक है।
- टीबी की जांच समय पर करनी चाहिए।
- इंसुलिन के उपयोग पर अध्ययन आवश्यक है।
नई दिल्ली, 5 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। विशेषज्ञों ने मंगलवार को बताया कि डायबिटीज निरंतर रोग प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर करता है, जिससे टीबी के मरीजों का स्वास्थ्य बिगड़ता है और मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है।
टीबी और डायबिटीज, दोनों वैश्विक स्वास्थ्य के लिए गंभीर चुनौतियां हैं। भारत में टीबी एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है। साल 2024 में देश में 28 लाख टीबी मामले दर्ज किए गए, जो वैश्विक स्तर पर 26 प्रतिशत हैं। इसके अलावा, 3.15 लाख टीबी से संबंधित मौतें हुईं, जो विश्व में 29 प्रतिशत हैं। दूसरी ओर, भारत में डायबिटीज के मरीजों की संख्या 10 करोड़ से अधिक हो चुकी है।
आईसीएमआर-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी, चेन्नई के वरिष्ठ चिकित्सा वैज्ञानिक हेमंत डी. शेवड़े ने समाचार एजेंसी राष्ट्र प्रेस को बताया, "डायबिटीज रोग प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर करता है, जिससे टीबी का खतरा बढ़ जाता है। टीबी से पीड़ित लोगों में डायबिटीज उनकी पहले से कमजोर इम्यून सिस्टम को और प्रभावित करता है, जिसके कारण ब्लड ग्लूकोज नियंत्रण बिगड़ जाता है, उपचार विफल होने की आशंका बढ़ जाती है और उपचार के बावजूद मृत्यु का जोखिम अधिक होता है।"
हाल ही में जर्नल प्लॉस वन में प्रकाशित एक शोध पत्र में शेवड़े और उनकी टीम ने बताया कि टीबी और मधुमेह से पीड़ित लोगों में उपचार के बाद भी बैक्टीरिया मौजूद रहने की संभावना दो से तीन गुना, उपचार पूरा होने के बाद फिर से होने की संभावना चार गुना और मृत्यु की संभावना पांच गुना अधिक होती है। टीबी का इलाज डायबिटीज के प्रबंधन को और भी मुश्किल बना देता है, जिससे रोग नियंत्रण कमजोर हो जाता है।
शेवड़े ने टीबी और डायबिटीज से पीड़ित लोगों की ग्लाइसेमिक स्थिति की निगरानी में सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया। वर्तमान में राष्ट्रीय टीबी कार्यक्रम के तहत मधुमेह का प्रबंधन टीबी के साथ या उसके बिना एक समान है। हालांकि, यह स्पष्ट करने के लिए और शोध की आवश्यकता है कि सख्त ग्लाइसेमिक नियंत्रण (एचबीए1सी 7 प्रतिशत से कम) जरूरी है या सामान्य नियंत्रण (एचबीए1सी 8 प्रतिशत से कम) पर्याप्त है। साथ ही, टीबी-डायबिटीज के मरीजों के लिए इंसुलिन के उपयोग पर भी और अध्ययन की जरूरत है।
शोध में कैपिलरी फास्टिंग ब्लड ग्लूकोज टेस्ट को टीबी-डायबिटीज के मरीजों की ग्लाइसेमिक स्थिति जांचने के लिए उपयोगी बताया गया। अध्ययनों के अनुसार, डायबिटीज के मरीजों में टीबी का जोखिम 3.5 से 5 गुना अधिक होता है, खासकर टाइप-1 डायबिटीज के मरीजों में। इन मरीजों में उपचार के बाद फिर से होने और देर से डायग्नोस होने पर मृत्यु का जोखिम भी अधिक होता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन सुझाव देता है कि दो सप्ताह से अधिक खांसी वाले डायबिटीज मरीजों की टीबी की जांच होनी चाहिए।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली की माइक्रोबायोलॉजी विभाग की डॉ. उर्वशी सिंह ने राष्ट्र प्रेस को बताया कि टाइप-1 डायबिटीज के मरीजों में पल्मोनरी ट्यूबरक्लोसिस की व्यापकता पर कम ही जानकारी उपलब्ध है।
हाल ही में जर्नल मल्टीडिसीप्लिनरी रेस्पिरेटरी मेडिसिन में प्रकाशित उनके शोध में 151 टाइप-1 डायबिटीज मरीजों की जांच की गई, जिसमें 10.6 प्रतिशत मरीजों के थूक में टीबी बैक्टीरिया पाया गया, खासकर उनमें जिन्हें पहले टीबी था।
शोध में, सिंह, डॉ. आर. गोस्वामी, डॉ. रणदीप गुलेरिया और डॉ. अभिलाश नायर ने 151 टाइप-1 डायबिटीज मरीजों में फेफड़ों की टीबी की स्थिति का अध्ययन किया। ये मरीज एक बड़े अस्पताल के आउटपेशेंट क्लिनिक में इलाज के लिए आए थे।
डॉ. सिंह ने बताया, "भारत में टाइप-1 डायबिटीज के मरीजों में पल्मोनरी ट्यूबरक्लोसिस की व्यापकता अधिक है। इन मरीजों की सक्रिय रूप से थूक जांच कर टीबी का जल्दी पता लगाना और उपचार शुरू करना जरूरी है ताकि समुदाय में इसके प्रसार को रोका जा सके।"