क्या 1857 के विद्रोह से अलीगढ़ आंदोलन तक, सर सैयद ने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ सच बोलने का साहस दिखाया?

सारांश
Key Takeaways
- सर सैयद अहमद खान ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाई।
- उनका कार्य मुस्लिम समुदाय के उत्थान के लिए एक मील का पत्थर था।
- अलीगढ़ आंदोलन ने शिक्षा के माध्यम से समाज में बदलाव लाने का प्रयास किया।
नई दिल्ली, १६ अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। मुरादाबाद, १८५८ की ठंडी रात। १८५७ का भारतीय विद्रोह अब समाप्त हो चुका था, लेकिन ब्रिटिश छावनियों में प्रतिशोध की आग सुलग रही थी। हर भारतीय, विशेषकर उन मुसलमानों को, जो हाल ही में गिरे सल्तनत के कारण संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा था।
ऐसी स्थिति में, उप-न्यायाधीश सर सैयद अहमद खान एक बंद कमरे में थे। वह जो लिख रहे थे, वह कोई साधारण लेख नहीं था, बल्कि एक राजनीतिक दस्तावेज था जिसे वह सीधे उन शासकों को सौंपने वाले थे जो आक्रोश में थे। इस पुस्तिका का नाम था 'अस्बाब-ए-बगावत-ए-हिन्द' (भारतीय विद्रोह का कारण)।
सर सैयद ने निर्भीकता से ब्रिटिश नीतियों को विद्रोह का मुख्य कारण बताया। उन्होंने लिखा, "विद्रोह की असली वजह सिपाही या कोई साजिश नहीं थी, बल्कि आपकी (ब्रिटिश) नीतियां थीं। आपने भारतीयों को शासन में शामिल नहीं किया और उनकी भावनाओं की उपेक्षा की।"
उनके दोस्तों ने चेताया कि वह अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। अंग्रेज उनकी जान ले सकते हैं, लेकिन सर सैयद को पता था कि चुप रहना मुस्लिम समुदाय के लिए विनाशकारी होगा। उन्होंने कहा, "यह सच मेरी जिम्मेदारी है।"
उन्होंने इस पुस्तिका की हजारों प्रतियां छपवाईं, इसे सील किया और सीधा वायसराय और ब्रिटिश संसद को भेज दिया। यह एक रणनीतिक कदम था। यह साहस और अस्तित्व के लिए संघर्ष ही सर सैयद की पहचान थी।
दिल्ली में १७ अक्टूबर १८१७ को जन्मे सर सैयद अहमद खान का परिवार सत्ता और संस्कृति के केंद्र में था। उनके नाना मुगल सम्राट के प्रधानमंत्री थे और परिवार को ईस्ट इंडिया कंपनी में भी उच्च पद मिले थे।
सर सैयद की प्रारंभिक शिक्षा पारंपरिक थी, लेकिन उनकी दृष्टि आधुनिक थी। उनके भाई ने दिल्ली में एक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया, जो उनके परिवार की विचारों के प्रसार की प्रवृत्ति को दर्शाता है। १८३८ में, वित्तीय संकट के कारण, सर सैयद ने ईस्ट इंडिया कंपनी में क्लर्क के रूप में कार्य प्रारंभ किया। उनकी क्षमता इतनी थी कि केवल तीन वर्षों में, १८४१ तक, वे उप-न्यायाधीश बन गए।
न्यायिक दायित्वों के साथ-साथ उनका साहित्यिक जुनून भी जीवित रहा। १८४७ में उन्होंने दिल्ली की पुरानी इमारतों पर एक पुरातात्विक ग्रंथ, 'आसार-उस-सनादीद' प्रकाशित किया।
१८५७ का विद्रोह सर सैयद के जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ था। उन्होंने मुगल सत्ता का पतन देखा। विद्रोह की विफलता के बाद मुस्लिम समुदाय राजनीतिक रूप से हाशिए पर चला गया।
सर सैयद ने मुस्लिम समुदाय की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए अलीगढ़ आंदोलन की शुरुआत की। इस सपने को पूरा करने के लिए, उन्होंने एक संगठित अवसंरचना का निर्माण किया।
१८६४ में उन्होंने साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य पश्चिमी साहित्य और विज्ञान के कार्यों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करना था।
१८७० में 'तहजीबुल अखलाक' पत्रिका के माध्यम से उन्होंने सामाजिक और धार्मिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया।
७ जनवरी, १८७७ को अलीगढ़ में मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल (एमएओ) कॉलेज की स्थापना की। यह भारत के पहले आवासीय शैक्षणिक संस्थानों में से एक था।
एमएओ का लक्ष्य मुस्लिम युवाओं को अंग्रेजी शिक्षा से लैस करना था, ताकि वे सरकारी रोजगार प्राप्त कर सकें। १९२० में यह कॉलेज अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में परिवर्तित हो गया, जो आज भी भारत के महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में से एक है।
दिलचस्प बात यह है कि एमएओ कॉलेज की वित्तीय नींव अखिल भारतीय और गैर-सांप्रदायिक थी।
सर सैयद ने अपनी संस्था के लिए सभी समुदायों से दान स्वीकार किए, जिससे उनके शैक्षिक मिशन को एक साझा राष्ट्रीय आवश्यकता के रूप में मान्यता मिली।
सर सैयद का निधन २७ मार्च १८९८ को हुआ। उन्हें उनके कर्मभूमि, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय परिसर में दफनाया गया। उन्होंने १८८८ में 'नाइट कमांडर ऑफ द स्टार ऑफ इंडिया' (केसीएसआई) की उपाधि प्राप्त की।
एएमयू हर वर्ष १७ अक्टूबर को उनके जन्मदिन को 'सर सैयद डे' के रूप में मनाता है।