क्या बाबा नागार्जुन भारतीय साहित्य के 'जनकवि' थे? लेखनी के माध्यम से समाज में नई चेतना का संचार किया

सारांश
Key Takeaways
- बाबा नागार्जुन की रचनाएं सामाजिक चेतना का प्रतीक हैं।
- उनकी कविताएं और उपन्यास आज भी प्रासंगिक हैं।
- वे भारतीय साहित्य के 'जनकवि' माने जाते हैं।
- उनकी लेखनी ने समाज में जागरूकता बढ़ाई।
- उन्होंने परंपरा और आधुनिकता का समन्वय किया।
नई दिल्ली, 29 जून (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय साहित्य में बाबा नागार्जुन एक अद्वितीय शख्सियत के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से न केवल साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि समाज की वास्तविकताओं को भी उजागर किया। उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था, और वे हिंदी में 'नागार्जुन' और मैथिली में 'यात्री' के नाम से प्रसिद्ध हुए।
बिहार के मधुबनी जिले के सतलखा गांव में 30 जून 1911 को जन्मे नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उनकी रचनाओं में प्रगतिशील विचारधारा, जनवादी भावना और सामाजिक अन्याय के खिलाफ तीखा व्यंग्य स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
नागार्जुन का बचपन कठिनाइयों में बीता। उनके पिता गोकुल मिश्र एक किसान थे और पुरोहिती भी करते थे। माता उमा देवी का निधन जब वे चार साल के थे, तब उनके ननिहाल में उनका पालन-पोषण हुआ। उन्होंने गांव की संस्कृत पाठशाला में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की, जहां उन्होंने लघु सिद्धांत कौमुदी और अमरकोश पढ़ा।
बाद में उन्होंने बनारस और कोलकाता में अवधी, ब्रज और खड़ी बोली का अध्ययन किया। वर्ष 1936 में श्रीलंका के 'विद्यालंकार परिवेण' में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर उन्होंने 'नागार्जुन' नाम अपनाया, जो बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन से प्रेरित था।
नागार्जुन की रचनाएं सामाजिक विषमताओं, शोषण और वर्ग-संघर्ष पर केंद्रित हैं, जिसके कारण उन्हें 'जनकवि' भी कहा जाता है। उनकी कविताएं जैसे 'मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा', 'अपने खेत में' और 'शायद कोहरे में न भी दिखे' आम जन की पीड़ा को अभिव्यक्त करती हैं। उनकी भाषा सरल और सहज है, जिसमें तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का अनूठा मिश्रण है। छंदों का सधा हुआ प्रयोग उनकी कविताओं को लोकप्रिय बनाता है। मैथिली में 'पत्रहीन नग्न गाछ' और हिंदी में 'रतिनाथ की चाची', 'बलचनमा' जैसे उपन्यास उनकी साहित्यिक गहराई को दर्शाते हैं।
नागार्जुन की रचनाएं प्रगतिशील विचारधारा से ओतप्रोत हैं। उनकी कविताएं जैसे 'बादल को घिरते देखा है' प्रकृति के साथ उनके जुड़ाव को दर्शाते हैं और 'अकाल और उसके बाद' सामान्य जन की पीड़ा को उजागर करती हैं।
उनके उपन्यास 'रतिनाथ की चाची', 'बलचनमा' और 'बाबा बटेसरनाथ' ग्रामीण भारत की जटिल सामाजिक संरचना को उजागर करते हैं। उनकी लेखनी में बौद्ध दर्शन और मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट है, जिसे उन्होंने विद्वानों के साथ गहन अध्ययन से अर्जित किया।
नागार्जुन घुमक्कड़ स्वभाव के थे और उन्होंने भारत तथा श्रीलंका की यात्राओं से जीवन का गहरा अनुभव प्राप्त किया। उनकी रचनाओं में गरीबों, किसानों और मजदूरों की आवाज़ को बुलंद किया गया। आपातकाल के दौरान उनकी लेखनी ने सत्ता के खिलाफ तीखा प्रहार किया। साल 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1983 में भारत-भारती सम्मान ने उनकी साहित्यिक उपलब्धियों को मान्यता दी।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने परंपरा और आधुनिकता का अनूठा समन्वय किया। समकालीन साहित्यकार उदय प्रकाश उन्हें हिंदी कविता के 'अभिजात' और 'बौद्धिक' कवि मानते हैं। उनकी रचनाएं न केवल विद्रोही स्वर की वाहक हैं, बल्कि भारतीय काव्य परंपरा की गहराई को भी दर्शाती हैं।
बाबा नागार्जुन का निधन 5 नवंबर 1998 को हुआ, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं। वह साहित्य के ऐसे सूरज हैं, जो समाज की सच्चाई को रोशनी देते रहेंगे। उनकी लेखनी नई पीढ़ी को सामाजिक न्याय और मानवीय मूल्यों के लिए प्रेरित करती रहेगी।
नागार्जुन का साहित्य सामाजिक चेतना और मानवीय संवेदनाओं का प्रतीक है। उनकी कविताएं और उपन्यास आज भी पाठकों को सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरित करते हैं, जो उन्हें भारतीय साहित्य का ध्रुव तारा बनाता है।