क्या भिखारी ठाकुर ने नाटकों से परंपराओं को चुनौती दी और 'बिदेसिया' में अंतस की पीड़ा को दर्शाया?
सारांश
Key Takeaways
- भिखारी ठाकुर ने नाटकों के माध्यम से समाज को जागरूक किया।
- उनकी रचनाएं महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए थीं।
- उन्होंने रामलीला के माध्यम से रंगमंच की शुरुआत की।
- उनकी लोकप्रियता ने उन्हें समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया।
- उनका योगदान आज भी रंगमंच में जीवित है।
पटना, 17 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। नाम भले ही भिखारी रहे, लेकिन व्यवहार एक राजा जैसा था। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो अपने जीवन को सार्थक बना पाते हैं और समाज की रूपरेखा को बदलने की शक्ति रखते हैं। 18 दिसंबर 1887 को बिहार के छपरा में जन्मे भिखारी ठाकुर ने अपने रंगमंच के जादू से समाज की दुर्दशा को दुनिया के सामने रखा।
हम अनगढ़ हीरा और भोजपुरी के ‘शेक्सपियर' कहे जाने वाले महान कलाकार, लेखक, समाजसुधारक और रंगमंच के जादूगर भिखारी ठाकुर की बात कर रहे हैं। भिखारी ठाकुर ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से महिलाओं पर हुए अत्याचारों और कुरीतियों को मार्मिक तरीके से रंगमंच पर प्रस्तुत किया।
'बिदेसिया', 'बेटी वियोग', 'विधवा-विलाप' और 'ननद-भौजाई' उनके प्रसिद्ध नाटकों में से हैं, जिन्होंने समाज को आईना दिखाने का कार्य किया।
नाई परिवार में जन्मे भिखारी ठाकुर ने 9 साल की उम्र में विद्यालय जाना शुरू किया। लेकिन पढ़ाई और भिखारी का कोई मेल नहीं था। 19 साल की उम्र में कुछ ऐसा हुआ कि उनके हाथ में उस्तरे की जगह कलम ने ले ली। 19 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली बार मंच पर रामायण का मंचन देखा और उसी दिन मंच पर उतरने का निर्णय किया।
अपने गांव में भिखारी ठाकुर ने रामलीला का मंचन करना शुरू किया। गांव वालों को रामलीला पसंद थी, लेकिन उनका परिवार उनके नाच-गाने के खिलाफ था। इस कारण भिखारी रात में घर से निकलकर रंगमंच का हिस्सा बनते थे। रामलीला के बाद उन्होंने समाज को नई दिशा देने के लिए सामाजिक नाटकों का लेखन शुरू किया। भिखारी ठाकुर महिलाओं के वेश में आकर नाटक करते थे। उनकी अधिकांश रचनाएं महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार को उजागर करती थीं।
उन्होंने 'लौंडा नाच' के माध्यम से भी नई विद्या विकसित की। वह 1930 से 1970 के दशक में अपनी नाटक मंडली के साथ विभिन्न राज्यों में जाकर रंगमंच करने लगे और एक दिन के 400 रुपए लेते थे। उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि जब राज्य या शहर में उनकी नाटक मंडली रंगमंच का कार्यक्रम करती थी, वहां के सिनेमाहॉल खाली हो जाते थे।
असम और पश्चिम बंगाल में उनके 'बिदेसिया' और 'बेटी बेचवा' को बहुत प्यार मिला। यहां तक कि असम के सिनेमाघरों के मालिकों ने डीएम से गुहार लगाई थी कि वे भिखारी ठाकुर का नाच-गाना रुकवा दें। रातों-रात डीएम के आदेश की वजह से भिखारी ठाकुर असम में अपना कार्यक्रम नहीं कर पाए, लेकिन जहां-जहां रास्ते में वे रुकते थे, वहां अपनी मंडली के साथ नाटक प्रस्तुत करते थे। उनका निधन 10 जुलाई 1971 को हुआ था, और उनके जाने के बाद रंगमंच के एक शानदार कलाकार के करियर पर विराम लग गया। लेकिन, उनकी विद्या आज भी विभिन्न माध्यमों में जीवित है।