क्या बिहार के चुनावी रण में परिवारवाद की नई पौध विकसित होगी?

सारांश
Key Takeaways
- परिवारवाद का प्रभाव चुनावी राजनीति में बढ़ता जा रहा है।
- कई दलों के उम्मीदवार परिवार के कारण प्राथमिकता प्राप्त कर रहे हैं।
- बिहार की नई पार्टी भी इस मुद्दे से अछूती नहीं है।
- उम्मीदवारों की पहचान उनके परिवार से होती है।
- परिवारवाद के कारण लोकतंत्र की नींव कमजोर हो सकती है।
पटना, 16 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। आमतौर पर सभी राजनीतिक दलों के नेता लोकतंत्र में परिवारवाद के खिलाफ सार्वजनिक मंचों पर चर्चा करते हैं, लेकिन जब चुनाव में टिकट देने की बारी आती है, तब कई क्षेत्रों में कार्यकर्ताओं पर परिवारवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है। इस बिहार विधानसभा चुनाव के पटल पर भी परिवारवाद की एक नई पौध उभरती नजर आएगी।
यह कहना गलत नहीं होगा कि कोई एक पार्टी इस परिवारवाद की समस्या से अछूती नहीं है; विभिन्न पार्टियों के अब तक घोषित उम्मीदवारों पर नजर डालने पर कई ऐसे लोग सामने आते हैं, जिन्हें परिवार के कारण कार्यकर्ताओं से प्राथमिकता मिली है।
बिहार की नई पार्टी जन सुराज पार्टी भी इस परिवारवाद के जाल से बच नहीं पाई है। पहली बार बिहार की राजनीति में कदम रख रही जन सुराज ने पूर्व केंद्रीय मंत्री आर सी पी सिंह की पुत्री लता को चुनावी मैदान में उतारा है। नेताओं के पुत्र, पुत्रियां और पत्नियां भी इस चुनावी समर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले हैं।
लोजपा (रामविलास) ने राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान के भांजे सीमांत मृणाल को गरखा से चुनावी मैदान में उतारा है और भाजपा के पूर्व सांसद गोपाल नारायण सिंह के पुत्र त्रिविक्रम सिंह औरंगाबाद से चुनावी रण में हैं।
राष्ट्रीय लोक मोर्चा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा की पत्नी स्नेहलता कुशवाहा सासाराम से चुनावी मैदान में होंगी, जबकि राजद ने पूर्व सांसद शहाबुद्दीन के पुत्र ओसामा साहेब को सीवान से टिकट दिया है। राजद ने विधायक किरण देवी की जगह उनके पुत्र दीपू सिंह को सिंबल दिया है, जबकि भाजपा ने विधायक स्वर्णा सिंह के पति सुजीत सिंह को गौराबौराम से टिकट दिया है।
जदयू ने सांसद वीणा देवी की पुत्री कोमल सिंह को प्रत्याशी बनाया है, जबकि मीनापुर से पूर्व विधायक दिनेश कुशवाहा को भी प्रत्याशी बनाया गया है।