क्या चौधरी भजनलाल को सत्ता के रियल मैनेजर और राजनीति के चाणक्य कहा जा सकता है?

सारांश
Key Takeaways
- भजनलाल की राजनीतिक यात्रा ने हरियाणा की राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव लाए।
- उनकी संगठनात्मक क्षमता ने उन्हें एक सफल नेता बनाया।
- जातीय समीकरण को साधने में उनकी रणनीतियाँ अद्वितीय थीं।
- उन्होंने अपने कार्यकाल में आर्थिक और सामाजिक स्थिरता पर ध्यान केंद्रित किया।
- भजनलाल की कहानी प्रेरणादायक है, जो संघर्ष और सफलता की मिसाल है।
नई दिल्ली, 5 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। एक किसान परिवार से आने वाले एक युवा ने शून्य से शिखर तक की यात्रा की और उस राज्य की राजनीति का अभिन्न हिस्सा बन गया, जो हमेशा से 'आया राम-गया राम' जैसे नाटकीय घटनाओं के लिए जाना जाता रहा है। हम बात कर रहे हैं चौधरी भजनलाल की, जो केवल तीन बार हरियाणा के मुख्यमंत्री नहीं बने, बल्कि उन्होंने अपनी राजनीतिक समझ और अद्वितीय संगठनात्मक क्षमता के साथ 'सत्ता के गणित' को हमेशा के लिए बदल दिया। उन्हें हरियाणा की सियासत का 'चाणक्य' कहा जाता था।
भजनलाल का जन्म 1930 में कोटली गांव में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है। विभाजन के बाद, उनका परिवार हिसार के आदमपुर गांव में बस गया। उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षों से भरा था, लेकिन उनके मन में एक बड़ी दुनिया देखने का सपना था। उन्होंने अपनी राजनीतिक यात्रा ग्राम पंचायत के सरपंच के रूप में शुरू की। यह नींव थी, जिसने उन्हें लोगों की नब्ज पहचानने में मदद की। गांव की चौपालों से शुरू हुई उनकी यह यात्रा, जल्दी ही विधानसभा के गलियारों तक पहुंच गई। भजनलाल ने 1968 में पहली बार विधायक का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। उनकी राजनीतिक कुशलता का पहला उदाहरण तब सामने आया जब उन्होंने अपने दम पर ग्रामीण वोट बैंक में गहरी पैठ बना ली।
हरियाणा की राजनीति में तीन 'लाल' (भजनलाल, बंसीलाल और देवीलाल) हमेशा चर्चा में रहे। ये तीनों दिग्गज समय-समय पर सत्ता के केंद्र में रहे और एक-दूसरे को चुनौती देते रहे। भजनलाल का पहला मुख्यमंत्री कार्यकाल 1979 में शुरू हुआ, जब देवीलाल को हटाकर उन्हें कमान सौंपी गई। इस दौरान, उन्होंने प्रशासनक के रूप में अपनी मजबूत पकड़ बनाई। उन्होंने ग्रामीण विकास, कृषि और सिंचाई पर ध्यान केंद्रित किया, लेकिन जो बात उन्हें अन्य नेताओं से अलग बनाती थी, वह थी उनकी 'मैनेजमेंट' कला। उन्हें यह समझ था कि राजनीतिक अस्थिरता वाले राज्य में, सत्ता में बने रहने के लिए केवल काम करना काफी नहीं है, बल्कि विधायकों का विश्वास बनाए रखना भी आवश्यक है।
भजनलाल के राजनीतिक जीवन का सबसे नाटकीय अध्याय 1982 में लिखा गया। उस समय विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। देवीलाल के नेतृत्व में 'लोकदल-भाजपा' गठबंधन ने सरकार बनाने का दावा किया, लेकिन भजनलाल के पास एक अलग योजना थी। उन्होंने एक रात में ही बाजी पलट दी। जब लोकदल-भाजपा सरकार बनाने की तैयारी कर रहे थे, तब भजनलाल ने अपने विरोधियों के कई विधायकों को अपने पाले में कर लिया। यह भारतीय राजनीति के इतिहास में सबसे बड़े और सबसे तेज दलबदल की घटनाओं में से एक था।
अगले दिन, राज्यपाल ने लोकदल-भाजपा गठबंधन के बजाय, भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। विपक्ष हैरान रह गया। इस घटना ने उन्हें 'आया राम-गया राम' की राजनीति का अघोषित 'अधिष्ठाता' बना दिया। उन्हें न केवल सत्ता बचाने का, बल्कि सत्ता छीनने का भी माहिर खिलाड़ी माना जाने लगा। इस चाल ने उन्हें 'चाणक्य' का स्थायी तमगा दिला दिया।
भजनलाल की सफलता का एक और बड़ा कारण था हरियाणा के जटिल जातीय समीकरणों को साधने की उनकी क्षमता। जाट और गैर-जाट राजनीति के बीच संतुलन बनाना हमेशा से एक चुनौती रही है। भजनलाल (जो बिश्नोई समुदाय से आते थे) ने गैर-जाट वोटों को सफलतापूर्वक एकजुट किया, लेकिन साथ ही जाट नेताओं के साथ भी ऐसे संबंध बनाए रखे कि जब जरूरत पड़ी, वे उनके समर्थन में आ गए।
वह विरोधियों को सीधे टक्कर देने के बजाय, उन्हें अपनी ओर खींचने या बेअसर करने की रणनीति अपनाते थे। सत्ता का सुख, कुर्सी का लालच और प्रशासनिक रियायतें। उन्होंने समझा कि किस विधायक को कब और क्या देना है, ताकि वह उनके वफादार बने रहें। इस प्रबंधन के चलते उनकी सरकारें अक्सर बाहरी समस्याओं के बावजूद अंदर से मजबूत रहती थीं।
भजनलाल 1991 में तीसरी बार हरियाणा के मुख्यमंत्री बने। यह कार्यकाल उनके लिए एक प्रशासक के रूप में अपनी छवि को और मजबूत करने का मौका था। उन्होंने इस कार्यकाल में राज्य के बुनियादी ढांचे और कृषि विकास को प्राथमिकता दी। उनके समर्थक मानते हैं कि उन्होंने हरियाणा को आर्थिक और सामाजिक स्थिरता देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। खासकर, बिजली और सड़क नेटवर्क को मजबूत करने में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। उन्होंने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि उनकी नीतियों का लाभ सीधे आम आदमी तक पहुंचे, जिससे उनकी लोकप्रियता का ग्राफ कभी नीचे नहीं आया।
कांग्रेस में लंबा सफर तय करने के बाद, जब उन्हें लगा कि पार्टी में उनका कद कम हो रहा है, तो उन्होंने अपने बेटे कुलदीप बिश्नोई के साथ मिलकर 2007 में अपनी खुद की पार्टी 'हरियाणा जनहित कांग्रेस (एचजेसी)' का गठन किया।
3 जून 2011 को हरियाणा की राजनीति का यह चमकता सितारा हमेशा के लिए अस्त हो गया।