क्या देशबंधु चित्तरंजन दास ने वकालत छोड़कर स्वराज की मशाल जलाने का साहस किया?
सारांश
Key Takeaways
- चित्तरंजन दास ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- उन्होंने वकालत छोड़कर स्वराज की मांग की।
- उनका नारा 'परिषद में घुसो, अंदर से तोड़ो' प्रसिद्ध हुआ।
- उनकी न्याय के प्रति प्रतिबद्धता अद्वितीय थी।
- गांधीजी के साथ उनकी साझेदारी ने स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।
नई दिल्ली, 5 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। ढाका के बिक्रमपुर स्थित तेलिरबाग गाँव में 5 नवंबर 1870 की सुबह, जब गंगा की लहरें कोहरे में लिपटी थीं, तब एक बालक का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया- चित्तरंजन दास। लंदन से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे देशबंधु ने अपने मुवक्किलों के मामलों को जितनी मजबूती से लड़ा, उतनी ही दृढ़ता से स्वराज की मांग को भी आगे बढ़ाया। गांधीजी के असहयोग आंदोलन में मोतीलाल नेहरू के साथ मिलकर स्वराज पार्टी की स्थापना में उनकी भूमिका उल्लेखनीय रही।
चित्तरंजन दास के पिता, भुवन मोहन दास, कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रसिद्ध वकील थे, और मां, नंदिनी देवी, ब्रह्म समाज की आध्यात्मिक अनुयायी थीं। उनके घर में वेद-उपनिषदों की चर्चा और रवींद्र संगीत की धुनें गूंजती थीं। छोटे चित्तरंजन की आँखों में कविता की चमक और दिल में न्याय का जज़्बा था। 1893 में लंदन से बैरिस्टर बनकर लौटने के बाद, जब उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय में पहला केस जीता, तो फीस के रूप में प्राप्त ₹500 उन्होंने गरीब मुवक्किल को लौटा दिए और कहा, 'मेरा मुकदमा न्याय का था, धन का नहीं।'
1908 में अलीपुर बम कांड को लेकर अरविंद घोष पर राजद्रोह का मुकदमा चला। चित्तरंजन ने 11 दिन तक अदालत में तर्क किए, और उनका अंतिम वक्तव्य इतना प्रभावशाली था कि जज ने घोष को बरी कर दिया। जब वे अदालत से बाहर आए, तो लोगों ने 'देशबंधु! देशबंधु!' के नारे लगाए, जो उपनाम उनके जीवन भर के लिए बना।
1920 में जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया, उस समय चित्तरंजन कलकत्ता के सबसे अमीर वकील थे। उनके पास सभी ऐशो-आराम थे, लेकिन एक सुबह उन्होंने पत्नी बसंती देवी से कहा, 'आज से वकालत बंद।' बसंती ने मुस्कुराते हुए खादी के वस्त्र निकाले। चित्तरंजन ने कोर्ट का कोट उतारा और खादी का कुर्ता पहन लिया। उन्होंने अपनी कोठी बेच दी और पैसा असहयोग कोष में दान किया। जब वे जेल गए, तो जेलर ने सवाल किया कि आप इतने अमीर हैं, फिर भी ऐसा कर रहे हैं? जिस पर चित्तरंजन ने हंसते हुए जवाब दिया, 'मेरा असली मुकदमा अब भारत का है।'
1922 में चौरी-चौरागांधीजी ने आंदोलन रोका, इस पर दास असहमत थे। उन्होंने मोतीलाल नेहरू के साथ स्वराज्य पार्टीपरिषद में घुसो, अंदर से तोड़ो।' 1923 के बंगाल विधानसभा चुनाव में स्वराज्य पार्टीबंगाली जादूगर है।
1920 में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेसमजदूर का पसीना ही राष्ट्र का खून है।'
1925 में उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया, जिसके बाद उन्हें दार्जिलिंग ले जाया गया। जहां वे केवल 54 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली। उस समय कलकत्ता में उनकी अंतिम यात्रा में लाखों लोग शामिल हुए। उस समय गांधीजी ने उनके जाने को अपनी व्यक्तिगत क्षति बताया।