क्या हयग्रीव माधव मंदिर में भगवान विष्णु को कछुए अर्पित किए जाते हैं?
सारांश
Key Takeaways
- हयग्रीव माधव मंदिर का निर्माण 100 वर्ष पहले हुआ था।
- यह मंदिर हिंदू और बौद्ध धर्म का संगम है।
- काले मुलायम खोल वाले कछुओं की अर्पण परंपरा अद्वितीय है।
- यह स्थान भगवान विष्णु के अवतारों से जुड़ा है।
- मंदिर में जटिल नक्काशी और मूर्तियाँ हैं।
नई दिल्ली, 27 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। सृष्टि के संरक्षण के लिए भगवान विष्णु ने 10 बार अवतार लिया। उन्होंने समुद्र मंथन के दौरान कछुए का रूप धारण कर सृष्टि का उद्धार किया और राक्षसों के वध के लिए मत्स्य अवतार लिया।
भारत में भगवान विष्णु के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है, लेकिन असम में उनका एक अनोखा स्वरूप है, जिसमें उनका सिर घोड़े का और शरीर मानव का है। यह मंदिर केवल हिंदू आस्था का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए भी महत्वपूर्ण है।
असम के हाजो एरिया में हयग्रीव माधव मंदिर स्थित है, जो भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार को समर्पित है और इसे 100 वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाता है। यह प्राचीन मंदिर दोनों धर्मों के अनुयायियों के लिए आध्यात्मिक महत्व रखता है, क्योंकि हिंदू मानते हैं कि यहां भगवान ने मधु और कैटव नामक राक्षसों का वध किया था। जबकि बौद्धों का मानना है कि महात्मा बुद्ध ने यहीं पर निर्वाण प्राप्त किया था।
इसलिए यह मंदिर दोनों धर्मों के लोगों के लिए आस्था का केंद्र है।
इस मंदिर में सदियों से एक अनोखी परंपरा चली आ रही है, जिसमें भक्त काले मुलायम खोल वाले कछुए भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए अर्पित करते हैं। भक्त इन कछुओं को एक मीठे पानी के तालाब में छोड़ देते हैं। जब भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं, तो वे कछुए प्रसाद के रूप में लाते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि ये कछुए संरक्षित श्रेणी में आते हैं और तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। पर्यावरणविदों का मानना है कि इस परंपरा से प्रकृति को नुकसान हो रहा है। हालांकि, यह परंपरा अभी भी जीवित है।
हयग्रीव माधव मंदिर की जटिल नक्काशी और मूर्तियां पुरानी पौराणिक कथाओं को दर्शाती हैं और विभिन्न देवी-देवताओं की उपस्थिति को प्रकट करती हैं। गर्भगृह में मुख्य रूप से भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार की पूजा होती है, एवं दाल, चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के तौर पर अर्पित की जाती है। मंदिर के निर्माण के बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। कुछ लोग मानते हैं कि राजा रघुदेव नारायण ने 1583 में इसका निर्माण करवाया था, जबकि कुछ इतिहासकार इसे पाल वंश के राजाओं का श्रेय देते हैं।