क्या मृदुला गर्ग के लेखन ने हिंदी साहित्य को नई दिशा दी?
सारांश
Key Takeaways
- मृदुला गर्ग का लेखन परंपराओं को चुनौती देता है।
- उनकी कहानियों में सामाजिक यथार्थ का अद्भुत संगम है।
- उन्होंने स्त्री की मुक्ति को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया।
- उनके कार्यों में जीवन की गहराई और संवाद का साहस है।
- वे किसी विशेष विचारधारा से बंधी नहीं हैं।
नई दिल्ली, २४ अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। हिंदी साहित्य की दुनिया में मृदुला गर्ग एक ऐसा नाम है, जिन्होंने अपने लेखन के माध्यम से न केवल परंपराओं को चुनौती दी, बल्कि पाठकों को सोचने पर मजबूर किया। उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन किया और लगभग हर साहित्यिक विधा में अपनी रचनात्मकता का परिचय दिया है। आठ उपन्यास, चार नाटक, चार निबंध संग्रह, एक संस्मरण, एक यात्रा वृत्तांत और ९० से अधिक कहानियां, यह उनकी अब तक की सृजन-यात्रा का प्रमाण हैं।
२५ अक्टूबर १९३८ को कोलकाता में जन्मी मृदुला गर्ग के लेखन में एक ओर व्यंग्य की तीखी धार है तो दूसरी ओर आत्ममंथन की गहराई। वे किसी विचारधारा या परंपरा की अनुयायी नहीं रहीं, बल्कि अपने लेखन के माध्यम से स्थापित मान्यताओं को तोड़कर नए दृष्टिकोण गढ़े।
मृदुला गर्ग का लेखन १९७२ से आरंभ हुआ। इस दौरान उन्होंने कई लोकप्रिय व्यंग्य स्तंभ भी लिखे। अपने लेखन जीवन में वे विवादों से घिरी रहीं, लेकिन उनकी ईमानदारी और स्पष्टवादिता ने उन्हें साहित्यिक जगत में पहचान दी।
उनकी इस निर्भीकता की जड़ें उनके परिवार और बचपन के अनुभवों में हैं। बचपन में वे बहुत स्वस्थ नहीं रहीं, लगातार तीन सालों तक स्कूल नहीं जा सकीं, न खेल सकीं, न मित्र बना सकीं। यही एकांत उन्हें चिंतन और लेखन की ओर ले गया। उनके पिता ने उन्हें कम उम्र में ही कई लेखकों की रचनाएं पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इसने उनमें महानता से भय नहीं, बल्कि संवाद का साहस पैदा किया।
उनकी मां गंभीर रूप से बीमार रहती थीं, लेकिन साहित्य की शौकीन पाठक थीं। मृदुला ने उन्हें एक 'अलग तरह की महिला' के रूप में देखा, जिसने पारंपरिक स्त्री छवि से हटकर नया नजरिया दिया। यही अनुभव आगे चलकर उनके लेखन में गैर-पारंपरिक महिला पात्रों के रूप में उभरे। साहित्य अकादमी की 'मीट द ऑथर मृदुला गर्ग' में उन्होंने खुद अपनी जिंदगी के किस्से शेयर किए।
उनकी पहली कहानी 'अवकाश', जो १९७२ में आई, ने उन्हें हिंदी साहित्य जगत में पहचान दी। मृदुला ने इस कहानी के माध्यम से स्त्री की भावनात्मक स्वतंत्रता का पक्ष रखा।
उनकी कहानियां 'हरी बिंदी', 'कितनी कैदें', 'डैफोडिल जल रहे हैं' और उपन्यास 'उसके हिस्से की धूप', 'चित्तकोबरा' और 'वंशज' ने उन्हें उस दौर की सबसे साहसी लेखिकाओं में शुमार किया। उन्होंने न केवल स्त्री की मुक्ति को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया, बल्कि समाज, राजनीति और आत्मबोध, तीनों को एक साथ जोड़ा।
उनके उपन्यासों में स्मृति, आत्मचिंतन और सामाजिक यथार्थ का अद्भुत संगम है। वे अपने पात्रों को परिस्थितियों से नहीं, बल्कि उनके 'चयन' से परिभाषित करती हैं।
मृदुला गर्ग की रचनाओं में कोई 'वाद' नहीं, बल्कि जीवन की गहराई है। जैसा कि मनोहर श्याम जोशी ने कहा था, "मृदुला किसी परंपरा से नहीं जुड़तीं। वे मार्क्सवाद, मिथक, नारीवाद या क्षेत्रीय संस्कृति, किसी बंधन में नहीं बंधतीं। उनका संसार मध्यवर्गीय होते हुए भी परिचित नहीं, बल्कि निरंतर अप्रत्याशित होता है।" अक्टूबर २०१२ में साहित्य अकादमी की ओर से प्रकाशित 'मीट द ऑथर मृदुला गर्ग' में इसका उल्लेख मिलता है।
मृदुला गर्ग ने यूरोप, अमेरिका, जापान और रूस के विश्वविद्यालयों व सांस्कृतिक मंचों पर भारतीय साहित्य पर व्याख्यान दिए। उन्होंने भारतीय स्त्री की संवेदना और समाज की विडंबनाओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।
उन्हें २००१ में 'हेलमैन-हैमेट ग्रांट' से सम्मानित किया गया। उनकी कृति 'कठगुलाब' के लिए उन्हें २००४ में व्यास सम्मान और 'मिलजुल मन' के लिए २०१३ में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अलावा २०१४ में राम मनोहर लोहिया सम्मान दिया गया।