क्या अल्बर्ट एक्का ने पाकिस्तानी सेना को तबाह किया? बड़े पर्दे पर दिखेगी 'परमवीर गाथा'
सारांश
Key Takeaways
- अल्बर्ट एक्का का बलिदान हमारे देश की वीरता का प्रतीक है।
- बैटल ऑफ गंगासागर फिल्म उनकी गाथा को जीवित रखेगी।
- उन्होंने परमवीर चक्र प्राप्त किया, जो सबसे बड़ा सम्मान है।
- उनकी कहानी प्रेरणा का स्रोत है।
- अल्बर्ट एक्का के स्मारक हमें उनकी वीरता की याद दिलाते हैं।
नई दिल्ली, 26 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। झारखंड की माटी ने देश को अनेक वीर सपूत दिए हैं और उनमें से एक महान नाम है परमवीर चक्र विजेता अल्बर्ट एक्का। उनकी वीरता और सर्वोच्च बलिदान की कहानी अब सिनेमा के माध्यम से देश-दुनिया के सामने आ रही है। इस फिल्म का नाम है 'बैटल ऑफ गंगासागर'। विशेष बात यह है कि फिल्म की शूटिंग झारखंड के गुमला जिले में उनके पैतृक गांव जारी से शुरू हो चुकी है।
अल्बर्ट एक्का का नाम सुनते ही 3 दिसंबर 1971 का दिन याद आता है। उस दिन सुबह के पहले पहर में, त्रिपुरा की सीमा से सटे 'गंगासागर' के दलदली खेतों में बारूद की गंध फैल चुकी थी। भारतीय सेना की 14 गार्ड्स बटालियन के जवान आगे बढ़ रहे थे। अचानक, पाकिस्तानी मशीनगनों ने गोलाबारी शुरू कर दी। इस तनावपूर्ण स्थिति में, एक सांवला युवा, जिसकी आंखों में फुर्ती और दिल में तिरंगे की आन थी, वह कोई और नहीं बल्कि लांस नायक अल्बर्ट एक्का थे।
27 दिसंबर 1942 को गुमला (झारखंड) के जारी गांव में एक ओरांव आदिवासी परिवार में जन्मे अल्बर्ट का बचपन शिकार और हॉकी के खेल में बीता। धनुष-बाण चलाने में निपुण अल्बर्ट ने जंगलों में जो स्टील्थ (छिपने की कला) सीखी थी, वह आगे जाकर युद्ध के मैदान में उनका सबसे बड़ा हथियार बनी। 20 वर्ष की उम्र में उन्होंने सेना में शामिल होने का निर्णय लिया। अल्बर्ट एक्का 1968 में 14 गार्ड्स (14वीं बटालियन, ब्रिगेड ऑफ़ द गार्ड्स) का हिस्सा बने।
1971 के युद्ध में अगरतला को बचाने के लिए गंगासागर रेलवे स्टेशन पर नियंत्रण पाना जरूरी था। पाकिस्तान ने यहां कंक्रीट के बंकर बनाए थे और चारों ओर बारूदी सुरंगें बिछा रखी थीं। 14 गार्ड्स को आदेश मिला कि इस किले को ध्वस्त करना है। लेकिन यह सुसाइड मिशन जैसा था, क्योंकि जवानों को रेलवे ट्रैक के सहारे एक संकरी कतार में आगे बढ़ना था, जहां वे दुश्मन के आसान निशाने पर थे।
जैसे ही हमला शुरू हुआ, दुश्मन की एक लाइट मशीनगन (एलएमजी) ने भारतीय सैनिकों पर तबाही मचाना शुरू कर दिया। अल्बर्ट एक्का ने अपनी सुरक्षा की परवाह किए बिना दुश्मन के बंकर की ओर छलांग लगा दी। गोलियों की बौछार के बीच वे बंकर तक पहुंचे और दो पाकिस्तानी सैनिकों को ढेर कर दिया। मशीनगन की आवाज़ थम गई, लेकिन अल्बर्ट के पेट में गंभीर जख्म हो चुके थे। खून से लथपथ अल्बर्ट ने प्राथमिक उपचार लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा, 'अभी काम पूरा नहीं हुआ है।'
अल्बर्ट, जो अब तक अत्यधिक रक्तस्राव के कारण कमजोर हो चुके थे, रेंगते हुए बंकर में घुस गए। उन्होंने उस दुश्मन गनर को मौत के घाट उतार दिया जो जीत के बीच बाधा बना हुआ था।
सुबह के 10 बजते-बजते गंगासागर पर भारत का तिरंगा लहरा रहा था। दुश्मन भाग चुका था और अगरतला सुरक्षित था। लेकिन इस विजय की कीमत चुकाई थी अल्बर्ट एक्का ने। मशीनगन को खामोश करते ही उनके शरीर ने जवाब दे दिया और वे वीरगति को प्राप्त हुए।
1971 के युद्ध के पूर्वी मोर्चे पर 'परमवीर चक्र' पाने वाले वे एकमात्र योद्धा बने। आज भारत सरकार ने अंडमान के एक द्वीप का नाम उनके सम्मान में 'एक्का द्वीप' रखा है। रांची का 'अल्बर्ट एक्का चौक' आज भी उस वीर की याद दिलाता है।
2015 में उनकी पत्नी बलमदीना एक्का ने त्रिपुरा के उस गांव की यात्रा की, जहां अल्बर्ट शहीद हुए थे। स्थानीय ग्रामीणों ने 44 वर्षों से उस वीर की समाधि को सहेज कर रखा था। बलमदीना वहां की मिट्टी अपने साथ झारखंड ले आईं थीं।
भारत सरकार ने 2000 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था। बांग्लादेश सरकार ने उन्हें 'फ्रेंड्स ऑफ लिबरेशन वॉर' सम्मान से नवाजा है। त्रिपुरा सरकार ने भी उनके सम्मान में एक पार्क (अल्बर्ट एक्का पार्क) बनाया है।