क्या कश्मीर की रक्षा के अमर वीर: ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह और लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय की कहानी आपको प्रेरित करती है?
सारांश
Key Takeaways
- ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने कश्मीर की सुरक्षा की नींव रखी।
- लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय ने श्रीनगर की रक्षा की।
- दोनों वीरों ने कश्मीर को बचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- इनकी वीरता आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
- इन दोनों को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
नई दिल्ली, 26 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। यह कहानी है भारतीय सेना के दो वीरों की, जिनकी साहस ने 1947 में कश्मीर की भूमि को दुश्मन के कब्जे से बचाया। भारतीय सेना के ये वीर योद्धा थे ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह और लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय। पाकिस्तान ने कश्मीर पर रातोंरात कब्जा जमाने की नापाक साजिश की, जिसे इन दोनों वीरों ने अपनी अदम्य वीरता, रणनीति और बलिदान से नाकाम कर दिया। ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने कई दिनों तक लड़ाई की और कश्मीर की सुरक्षा की नींव रखी जबकि श्रीनगर की ओर बढ़ती दुश्मन की फौज को लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय ने अपनी टुकड़ी के साथ रोक रखा। इन वीरों की कहानी आज भी भारतीय सेना के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है।
1947 का अक्टूबर भारतीय इतिहास का वह समय था जब देश ने एक ओर आजादी का अनुभव किया, वहीं दूसरी ओर विश्वासघात और रक्तपात की विभीषिका भी देखी। पाकिस्तान ने योजनाबद्ध तरीके से जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने की साजिश रची, जिसे 'ऑपरेशन गुलमर्ग' नाम दिया गया। 22 अक्टूबर 1947 को कबायली हमलावरों ने पाकिस्तान की सेना के सहयोग से कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। उनका मुख्य लक्ष्य कश्मीर का हृदय अर्थात श्रीनगर था।
कबायली लुटेरे रास्ते में आने वाले गांवों को नष्ट करते गए। आगजनी, लूटमार और निर्दोष लोगों की हत्याओं ने घाटी को हिला कर रख दिया। इस विपरीत परिस्थिति में कश्मीर की रक्षा का जिम्मा महाराजा हरि सिंह की सेना पर था। सेना के प्रमुख ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने सैनिकों की एक छोटी-सी टुकड़ी के साथ उरी सेक्टर में दुश्मन की बढ़त को रोकने का बीड़ा उठाया।
राजेंद्र सिंह ने सीमित संसाधनों के बावजूद वीरतासैन्य बुद्धिमत्ता का प्रतीक था। कई दिनों तक लड़ते हुए उन्होंने दुश्मन की सेना को श्रीनगर तक पहुंचने से रोका। 26/27 अक्टूबर 1947 की रात, वे अपने साथियों सहित वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी कुर्बानी कश्मीर की सुरक्षा की पहली दीवार बन गई और उन्हें इतिहास में 'कश्मीर का रक्षक' कहा गया।
इसी दौरान, हालात तेजी से बिगड़ रहे थे। महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से मदद मांगी। 26 अक्टूबर 1947 को उन्होंने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए। अब भारत के लिए कार्रवाई का मार्ग खुल गया।
27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना की टुकड़ी वायुसेना के विमानों से श्रीनगर पहुंची। इस अभियान का नेतृत्व लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय कर रहे थे, जो उस समय सिख रेजिमेंट की पहली बटालियन के कमांडिंग ऑफिसर थे।
6 फरवरी 1913 को गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) के एक हिंदू परिवार में जन्मे दीवान रंजीत राय ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी अपनी बहादुरी दिखाई थी। इसी तरह, उन्होंने कश्मीर की इस जंग में भी अद्वितीय साहस दिखाया। उन्होंने श्रीनगर एयरपोर्ट की सुरक्षा सुनिश्चित की और अपनी टुकड़ी के साथ दुश्मन के खिलाफ मोर्चा संभाला।
27 अक्टूबर को माइल 32 के पास पाकिस्तानी हमलावरों ने मोर्टारों और भारी मशीनगनों से हमला किया। संख्या में बहुत कम होने के बावजूद, रंजीत राय और उनकी टुकड़ी ने दुश्मन को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया, लेकिन अपने सैनिकों को सुरक्षित निकालते हुए लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय गोली लगने से शहीद हो गए। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी टुकड़ी ने श्रीनगर को बचाए रखा और भारतीय सेना को मोर्चा संभालने का समय दिया।
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह और लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय, दोनों ही भारतीय सेना की शौर्यगाथा के अमर अध्याय हैं। एक ने कश्मीर के द्वार पर दुश्मन की प्रगति को रोका और दूसरे ने श्रीनगर की भूमि पर भारतीय तिरंगे की गरिमा को बनाए रखा।
इन दोनों वीरों के बलिदान ने कश्मीर को बचाया और भारतीय सेना की भविष्य की रणनीति की नींव रखी। स्वतंत्र भारत में पहले वीरता पुरस्कार 'महावीर चक्र' से दोनों को मरणोपरांत सम्मानित किया गया।