क्या कुंवर नारायण साहित्य के 'नारायण' हैं? 'अंतिम ऊंचाई' से 'अबकी बार लौटने' का वादा?

सारांश
Key Takeaways
- कुंवर नारायण की कविताएं जीवन के संघर्षों का सामना करने की प्रेरणा देती हैं।
- उनकी रचनाएं सामाजिक चेतना को उजागर करती हैं।
- कुंवर नारायण को कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाजा गया है।
- उनकी लेखनी ने हिंदी साहित्य में एक नया आयाम जोड़ा है।
- कुंवर नारायण ने कविता के माध्यम से मानवता के जटिल पहलुओं को समझाया।
नई दिल्ली, 18 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। आज के युवा जो जिंदगी की जद्दोजहद में हैं, उन्हें साहित्य से मार्गदर्शन मिल सकता है। कुंवर नारायण की 'अंतिम ऊंचाई' और 'अबकी बार लौटा' कविताएं सिर्फ कुछ शब्द नहीं हैं, बल्कि यह हमें हमारी जिंदगी के सपनों की दौड़ में रुककर, जो भी हमें प्राप्त है, उसके उत्सव को मनाने की प्रेरणा देती हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित कुंवर नारायण की कविता 'अंतिम ऊंचाई' मनुष्य को अंतिम क्षण तक हार न मानने के लिए प्रेरित करती है, वहीं दूसरी ओर 'अबकी बार लौटा' एक व्यक्ति को अपने आप को 'कंप्लीट' बनाने के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उकसाती है।
कुंवर नारायण की रचनाएं न केवल कविता की सीमाओं को पार करती हैं, बल्कि जीवन के संघर्षों, अस्तित्व की जटिलताओं और सामाजिक चेतना को भी उजागर करती हैं। वह अपनी लेखनी के माध्यम से उन पहलुओं को छूने का प्रयास करते हैं, जो मानव जीवन को प्रभावित करते हैं।
कुंवर ने लिखा है, 'कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब, अगर दसों दिशाएं हमारे सामने होतीं, हमारे चारों ओर नहीं। कितना आसान होता चलते चले जाना, यदि केवल हम चलते होते, बाकी सब रुका होता।'
उन्होंने न केवल धर्म पर लिखा है, बल्कि भाषा के महत्व को भी बताया है। उनका कहना है, 'भाषा का बहुस्तरीय होना उसकी जागरूकता की निशानी है।' यही उनका लिखने का अंदाज उन्हें हिंदी के कवियों में सबसे श्रेष्ठ बनाता है।
कुंवर नारायण की रुचि कविता के साथ-साथ इतिहास, पुरातत्व, सिनेमा, कला, क्लासिकल साहित्य, आधुनिक चिंतन, समकालीन विश्व साहित्य और संस्कृति में भी थी। उनकी कविताएं परंपरा, मानव आशा-निराशा और सुख-दुख के समागम से भरी होती थीं।
उन्होंने अपनी कविता में लिखा, 'अबकी बार लौटा तो बृहत्तर लौटूंगा, चेहरे पर लगाए नोकदार मूंछें नहीं, कमर में बांधे लोहे की पूंछें नहीं, जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को, तरेर कर न देखूंगा उन्हें, भूखी शेर-आंखों से, अबकी अगर लौटा तो, मनुष्यतर लौटूंगा।'
कुंवर नारायण न केवल हिंदी साहित्य के एक प्रमुख कवि थे, बल्कि एक आलोचक और अनुवादक भी थे, जिन्हें 'नई कविता' आंदोलन का महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माना जाता है।
19 सितंबर, 1927 को यूपी के फैजाबाद में जन्मे कुंवर नारायण का एक समृद्ध परिवार से संबंध था। उन पर आचार्य नरेंद्र देव, आचार्य कृपलानी और राम मनोहर लोहिया जैसी महान शख्सियतों का प्रभाव पड़ा। यहीं से उनकी साहित्य में रुचि बढ़ी और उनकी काव्य यात्रा का 'चक्रव्यूह' से आगाज हुआ।
कुंवर नारायण हिंदी साहित्य के उन कवियों में शामिल थे जिन्होंने अपनी लेखनी से हिंदी के पाठकों में नई समझ पैदा की। उनकी कविताएं अज्ञेय द्वारा संपादित 'तीसरा सप्तक' में शामिल की गई थीं।
कुंवर नारायण को हिंदी साहित्य में योगदान देने के लिए 1995 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 2008 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा, उन्हें 2009 में 'पद्मभूषण' से भी सम्मानित किया गया।
कुंवर नारायण ने अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों के दिलों में गहरी जगह बनाई। उनकी लिखी 'चक्रव्यूह' (1956), 'परिवेश: हम तुम' (1961), 'अपने सामने' (1979), 'कोई दूसरा नहीं' (1993), 'इन दिनों' (2002), 'हाशिए का गवाह' (2009) जैसे कविता-संग्रह भी अत्यधिक सराहे गए।
कुंवर ने हिंदी कविता को मिथक, इतिहास और वर्तमान के माध्यम से एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया। उनकी कविताएं व्यक्ति-अस्मिता, सामाजिक चेतना और जीवन पर केंद्रित हैं, जो पाठकों में गहन चिंतन को जगाती हैं। 15 नवंबर 2017 को कुंवर नारायण ने इस दुनिया को अलविदा कहा।