क्या खलनायकी के 'मदन चोपड़ा' ने सिल्वर स्क्रीन पर अभिनय से उड़ान भरी?

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क्या खलनायकी के 'मदन चोपड़ा' ने सिल्वर स्क्रीन पर अभिनय से उड़ान भरी?

सारांश

1993 में भारतीय सिनेमा ने नायक-खलनायक की परिभाषा को बदलने का एक महत्वपूर्ण क्षण देखा। दिलीप ताहिल के मदन चोपड़ा ने कॉर्पोरेट खलनायक की छवि को नया आयाम दिया। यह लेख उनकी यात्रा और योगदान पर प्रकाश डालता है।

Key Takeaways

  • मदान चोपड़ा का किरदार नब्बे के दशक के खलनायकों के लिए एक मील का पत्थर है।
  • दिलीप ताहिल ने संघर्ष के बाद सफलता प्राप्त की।
  • उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी अपनी पहचान बनाई।
  • उनकी यात्रा प्रेरणा देती है कि मेहनत से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
  • आज भी वे थिएटर के प्रति अपनी लगन बनाए हुए हैं।

नई दिल्ली, 29 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। वर्ष 1993, भारतीय सिनेमा के लिए एक महत्वपूर्ण समय था, जब पारंपरिक नायक-खलनायक की परिभाषा में एक क्रांतिकारी बदलाव आया। पर्दे पर एक युवा और उत्साही नायक (शाहरुख़ ख़ान) अपने मित्र के पिता से प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था। यह पिता कोई साधारण गुंडा नहीं था, बल्कि एक शक्तिशाली बिजनेसमैन था, जिसके चेहरे पर शालीनता का मुखौटा और आंखों में क्रूरता थी। यह किरदार था मदान चोपड़ा का।

मदान चोपड़ा का वह घमंड, जिसने एक युवा लड़के (अजय शर्मा) के पिता की विरासत छीन ली थी, और जिसका अंत नायक के हाथों होता है, यह दृश्य आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे महत्वपूर्ण दृश्यों में से एक माना जाता है। इस किरदार को अमर बनाने वाले अभिनेता दिलीप ताहिल हैं।

दिलचस्प बात यह है कि 30 अक्टूबर 1952 को आगरा में जन्मे दिलीप ताहिल, फिल्मों में हीरो बनने का सपना लेकर आए थे, लेकिन यह मदान चोपड़ा का किरदार ही था, जिसने उन्हें नब्बे के दशक के सबसे विश्वसनीय और ज़रूरी कॉर्पोरेट खलनायकों के बीच स्थापित किया।

'बाजीगर' केवल एक सुपरहिट फिल्म नहीं थी, बल्कि यह दिलीप ताहिल के 40 साल से अधिक के अभिनय करियर का वह टर्निंग पॉइंट था, जिसने उन्हें खलनायक के रूप में पहचान दिलाई।

दिलीप ताहिल का पूरा नाम दिलीप घनश्याम ताहिल रमानी है। उनके पिता, घनश्याम ताहिल रमानी, भारतीय वायु सेना के पायलट थे, इसलिए दिलीप का बचपन विभिन्न शहरों में बीता, लेकिन उनका पालन-पोषण मुख्य रूप से लखनऊ में हुआ। उनके पिता चाहते थे कि बेटा उनकी विरासत संभाले और पायलट बने, जिसके लिए दिलीप ने कुछ समय तक उड़ान की ट्रेनिंग भी ली।

कॉलेज में पढ़ाई करते हुए, दिलीप ने नाटकों में भाग लेना शुरू किया। उनके लिए मंच पर खड़े होना किसी विमान को उड़ाने से अधिक रोमांचक था। स्कूल के बाद, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और मुंबई के सेंट जेवियर कॉलेज में पढ़ाई के दौरान, वह मुंबई के थिएटर सर्किट से जुड़े। यहीं उनकी मुलाकात एलेक पदमसी और पर्ल पदमसी जैसे दिग्गज कलाकारों से हुई, जिन्होंने उनकी प्रतिभा को निखारा।

जब दिलीप ताहिल ने बड़े पर्दे पर कदम रखा, तो वह किसी कमर्शियल फिल्म से नहीं, बल्कि कला फिल्म के जनक श्याम बेनेगल की फिल्म 'अंकुर' से थे। इस फिल्म में उनके छोटे लेकिन प्रभावशाली किरदार को समीक्षकों ने सराहा। दिलीप को लगा था कि सफलता अब दरवाजे पर दस्तक दे रही है, लेकिन नियति ने कुछ और ही तय किया।

'अंकुर' के बाद अगले छह वर्षों तक उन्हें कोई बड़ा रोल नहीं मिला। यह उनके जीवन का सबसे कठिन दौर था, जहाँ एक प्रतिभाशाली कलाकार को संघर्ष करना पड़ा। इन वर्षों में उन्होंने खर्च चलाने के लिए विज्ञापनों और जिंगल्स में काम किया। यह वह समय था जब हताशा किसी भी कलाकार का करियर निगल सकती थी, लेकिन दिलीप ने थिएटर नहीं छोड़ा और अपनी कला को निखारते रहे।

आखिरकार, 1980 में उन्हें रमेश सिप्पी की बड़ी फिल्म 'शान' में एक छोटा, लेकिन नकारात्मक रोल मिला, जिसने उन्हें फिर से लाइमलाइट में ला खड़ा किया। इसके बाद 1982 में हॉलीवुड की ऑस्कर विजेता फिल्म 'गांधी' में भी उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

'शान' के बाद दिलीप ताहिल को खलनायक के रूप में पहचाना जाने लगा, लेकिन 1988 में आई 'कयामत से कयामत तक' ने उनकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया। इस फिल्म में उन्होंने जुही चावला के पिता धनराज सिंह की भूमिका निभाई। यह किरदार दर्शकों के दिल के करीब आया और उन्हें एक दमदार चरित्र अभिनेता के तौर पर पहचान मिली। इसी दौरान उन्होंने छोटे पर्दे पर भी अपनी छाप छोड़ी, खासकर रमेश सिप्पी के शो 'बुनियाद' और संजय खान के ऐतिहासिक शो 'द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान' में।

उनके करियर की दिशा 1993 में 'बाजीगर' से पूरी तरह बदल गई। मदान चोपड़ा का किरदार एक कॉर्पोरेट विलेन का ब्लू प्रिंट बन गया। 'बाजीगर' की अपार सफलता के बाद, दिलीप ताहिल नब्बे के दशक के हर बड़े बैनर की फिल्म में अनिवार्य हो गए। उन्होंने डर, इश्क, जुड़वा, राम लखन और कहो ना प्यार है जैसी 100 से अधिक फिल्मों में प्रभावशाली किरदार निभाए।

दिलीप ताहिल की अभिनय यात्रा केवल बॉलीवुड तक सीमित नहीं रही। वह उन चुनिंदा भारतीय कलाकारों में से हैं जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं। 2003 में, उन्होंने ब्रिटिश टेलीविजन के लोकप्रिय सोप ओपेरा 'ईस्टएंडर्स' में डैन फरेरा का किरदार निभाया, जिसने उन्हें वैश्विक पहचान दिलाई। इसके अलावा, उन्होंने बीबीसी की मिनी-सीरीज न्यूक्लियर सीक्रेट में भी काम किया।

भारत लौटने के बाद भी उन्होंने लीक से हटकर काम जारी रखा। 2013 में, उन्होंने फिल्म 'भाग मिल्खा भाग' में पंडित जवाहरलाल नेहरू की भूमिका निभाई, जिसे उन्होंने अपने करियर की सबसे चुनौतीपूर्ण और संतोषजनक भूमिकाओं में से एक माना।

आज भी दिलीप ताहिल सक्रिय हैं और थिएटर से उनका लगाव बरकरार है। जिस अभिनेता को उनके पिता पायलट बनाना चाहते थे, वह आज भी अभिनय की उड़ान भर रहा है।

Point of View

मैं मानता हूँ कि दिलीप ताहिल का किरदार मदन चोपड़ा भारतीय सिनेमा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। उनकी यात्रा हमें सिखाती है कि संघर्ष और मेहनत से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। हमें ऐसे कलाकारों का सम्मान करना चाहिए जो अपने काम से समाज को प्रेरित करते हैं।
NationPress
29/10/2025

Frequently Asked Questions

दिलीप ताहिल का प्रसिद्ध किरदार कौन सा है?
दिलीप ताहिल का प्रसिद्ध किरदार मदन चोपड़ा है, जो फिल्म 'बाजीगर' में था।
दिलीप ताहिल ने अपने करियर की शुरुआत कब की?
दिलीप ताहिल ने अपने करियर की शुरुआत 1970 के दशक में की थी।
क्या दिलीप ताहिल ने अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में भी काम किया है?
हाँ, उन्होंने ब्रिटिश टेलीविजन के शो 'ईस्टएंडर्स' में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मदान चोपड़ा का किरदार किस फिल्म में था?
मदान चोपड़ा का किरदार फिल्म 'बाजीगर' में था।
दिलीप ताहिल का जन्म स्थान क्या है?
दिलीप ताहिल का जन्म आगरा, भारत में हुआ था।