क्या संस्कृत भारतीय संस्कृति की आत्मा है? : शिव प्रताप शुक्ल

सारांश
Key Takeaways
- संस्कृत भारतीय संस्कृति का मूल है।
- यह ज्ञान का एक विशाल भंडार है।
- संस्कृत शिक्षा का प्रसार आवश्यक है।
- आधुनिकता और प्राचीनता का संगम संभव है।
- राज्यपाल ने संस्कृत के महत्व पर जोर दिया।
नई दिल्ली, ८ अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बुधवार को श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में विशेष दीक्षांत महोत्सव का आयोजन किया गया, जिसमें मुख्य अतिथि हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल शिव प्रताप शुक्ल रहे। उन्होंने संस्कृत भाषा को भारतीय संस्कृति की आत्मा और सभी भाषाओं की जननी बताया।
राज्यपाल ने अपने संबोधन में कहा कि संस्कृत देश को 'विकसित भारत' बनाने के सपने को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। यह भारतीय परंपराओं, चिकित्सा, भौतिक एवं अध्यात्म विज्ञान तथा अनेक विषयों के गहन ज्ञान का भंडार है।
उन्होंने कहा कि खगोलशास्त्र, आयुर्वेद जैसी प्रमुख विद्याएं और ज्योतिष, योग जैसे विषय हमारे प्राचीन ग्रंथों का अभिन्न हिस्सा हैं। संस्कृत और उसमें निहित ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने की आवश्यकता है।
राज्यपाल ने आगे कहा कि आज समाज अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और पवित्र ग्रंथों में निहित ज्ञान के प्रति अधिक जागरूक हो रहा है, जो यह साबित करता है कि आधुनिकता और प्राचीन संस्कृति साथ-साथ चल सकती हैं।
शिव प्रताप शुक्ल ने प्राचीन ग्रंथों पर शोध करने और उनके सार को सरल भाषा में प्रस्तुत करने की आवश्यकता पर जोर दिया ताकि लोग उनका लाभ उठा सकें। हमारे ऋषि-मुनियों ने ये ग्रंथ मानव, प्रकृति और पृथ्वी के कल्याण के लिए लिखे थे। यदि उनका ज्ञान लोगों तक पहुंचाया जाए तो समाज को अत्यधिक लाभ होगा।
उन्होंने संस्कृत शिक्षा के प्रसार और लोकप्रियता के लिए विश्वविद्यालय के निरंतर प्रयासों की सराहना की।
कार्यक्रम के दौरान केंद्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष प्रो. सुरेन्द्र दुबे ने भी आधुनिक समाज में संस्कृत की भूमिका के बारे में विस्तार से बताया और विश्वविद्यालय के प्रयासों की प्रशंसा की। इससे पहले कुलपति प्रो. मुरली मनोहर पाठक ने अतिथियों का स्वागत किया और विश्वविद्यालय की गतिविधियों के बारे में विस्तार से जानकारी दी।
इस अवसर पर राज्यपाल शिव प्रताप शुक्ल ने आचार्य मिथिला प्रसाद त्रिपाठी, वेद प्रकाश उपाध्याय, बलकृष्ण शर्मा और देवेंद्र नाथ त्रिपाठी सहित अन्य संस्कृत विद्वानों और शिक्षाविदों को संस्कृत के क्षेत्र में उनके विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया।