क्या नंदा सिद्धपीठ कुरूड से मां नंदा की डोलियां कैलाश के लिए रवाना हुईं?

सारांश
Key Takeaways
- नंदा देवी महोत्सव धार्मिक और सांस्कृतिक आस्था का प्रतीक है।
- कुरूड गांव से मां नंदा की डोलियां कैलाश के लिए रवाना होती हैं।
- श्रद्धालुओं ने भावपूर्ण विदाई दी।
- यह यात्रा मां नंदा की मायके से ससुराल का प्रतीक है।
- यह महोत्सव आदिशक्ति की पूजा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
चमोली, 17 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। उत्तराखंड का नंदा देवी महोत्सव धार्मिक और सांस्कृतिक आस्था का प्रतीक है, जिसे हर साल अगस्त-सितंबर में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। चमोली के नंदा नगर (घाट) ब्लॉक में स्थित कुरूड गांव, जो मां नंदा का मायका माना जाता है, से नंदा सिद्धपीठ मंदिर में पूजा-अर्चना के बाद नंदा देवी की उत्सव डोलियां कैलाश (उनकी ससुराल) के लिए रविवार को रवाना हुईं।
इस भावपूर्ण विदाई के दौरान श्रद्धालुओं की आंखों में आंसू थे और उन्होंने मां नंदा को सौगात भेंटकर उनकी यात्रा की कुशलता की कामना की।
नंदा सिद्धपीठ कुरूड के अध्यक्ष सुखवीर रौतेला ने कहा, “विभिन्न पड़ावों से होते हुए देव डोलियां कैलाश को रवाना हो चुकी हैं। यात्रा के प्रारंभ होने से पूरा क्षेत्र भक्तिमय हो गया है। उत्तराखंड के चमोली जिले में नंदा सिद्धपीठ कुरूड मंदिर से मां नंदा की उत्सव डोलियों को कैलाश के लिए विदाई दी गई। यह परंपरा मां नंदा को उनके मायके (कुरूड) से ससुराल (कैलाश) विदा करने की प्रतीकात्मक यात्रा है, जो नंदा देवी लोकजात यात्रा का हिस्सा है। पूजा-अर्चना के बाद डोलियों और छंतोलियों की विदाई की गई। श्रद्धालुओं ने मां नंदा को सौगात भेंटकर उनकी विदाई की।”
मुख्य पुजारी गंगा प्रसाद गौड़ ने बताया, “नंदा देवी की डोली और छंतोली की कैलाश विदाई एक पवित्र परंपरा है। यह यात्रा मां नंदा के मायके से ससुराल जाने की प्रतीकात्मक यात्रा है, जो श्रद्धालुओं के लिए भावनात्मक और आध्यात्मिक अनुभव है। उत्तराखंड का नंदा देवी महोत्सव एक धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन है, जिसे पूरे राज्य में उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। यह महोत्सव आदिशक्ति नंदा देवी की पूजा और उनकी मायके से ससुराल तक की प्रतीकात्मक यात्रा, नंदा लोकजात यात्रा का प्रतीक है।”
उन्होंने कहा कि चमोली जिले के नंदा नगर (घाट) ब्लॉक में स्थित कुरूड गांव को मां नंदा का मायका और कैलाश को उनकी ससुराल माना जाता है। हर साल अगस्त-सितंबर में होने वाली नंदा लोकजात यात्रा में कुरूड के नंदा सिद्धपीठ मंदिर से मां नंदा की डोलियां कैलाश के लिए रवाना होती हैं। इस दौरान श्रद्धालु पूजा-अर्चना करते हैं और मां को सौगात भेंटकर उनकी यात्रा की कुशलता की कामना करते हैं। नंदा देवी को गढ़वाल और कुमाऊं की इष्टदेवी माना जाता है, जिन्हें राजराजेश्वरी, शिवा, सुनंदा और नंदिनी जैसे नामों से भी पुकारा जाता है।”
श्रद्धालुओं ने भी अपनी भावनाएं व्यक्त कीं। एक श्रद्धालु ने कहा, “मां नंदा की विदाई देखकर ऐसा लगता है जैसे अपनी बेटी को ससुराल भेज रहे हों।”
दूसरे ने कहा, “यह यात्रा हमारी आस्था और संस्कृति का आधार है।”
तीसरे श्रद्धालु ने कहा, “नंदा माता की डोली को सजाकर विदा करना हमारे लिए गर्व की बात है।”
हर साल होने वाली नंदा लोकजात यात्रा कुरूड से शुरू होकर बेदनी बुग्याल और बालपाटा तक जाती है, जबकि हर 12 साल में होने वाली नंदा राजजात 280 किलोमीटर की कठिन यात्रा है, जो नौटी से शुरू होकर रूपकुंड, होमकुंड और नंदप्रयाग तक जाती है। इस बार तीन दिवसीय मेले का समापन हुआ। 30 अगस्त को दशोली की डोली बालपाटा में श्राद्ध-तर्पण करेगी, जबकि बधाण की डोली बेदनी बुग्याल से बांक गांव पहुंचेगी।
6 सितंबर को देवराडा मंदिर में छह माह के प्रवास के लिए डोली विराजमान होगी।