क्या रक्सौल विधानसभा सीट पर एनडीए का दबदबा बरकरार रहेगा?

सारांश
Key Takeaways
- रक्सौल विधानसभा क्षेत्र बिहार की 243 सीटों में से एक महत्वपूर्ण सीट है।
- यह क्षेत्र भारत-नेपाल संबंधों में केंद्रीय भूमिका निभाता है।
- भाजपा ने यहां लगातार जीत दर्ज की है, जो संगठन की मजबूती को दर्शाती है।
- यह सीट मुख्यतः ग्रामीण मतदाताओं पर निर्भर करती है।
- 2024 के चुनाव में मतदाता संख्या में वृद्धि हुई है।
पूर्वी चंपारण, 21 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। बिहार के पूर्वी चंपारण जिले का रक्सौल विधानसभा क्षेत्र राज्य की 243 सीटों में से एक महत्वपूर्ण सीट है। यह क्षेत्र भले ही पूर्वी चंपारण जिले का हिस्सा हो, लेकिन संसदीय स्तर पर यह पश्चिम चंपारण लोकसभा क्षेत्र का भाग है। ऐतिहासिक, भौगोलिक और राजनीतिक दृष्टि से यह सीट न केवल बिहार, बल्कि भारत-नेपाल संबंधों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
रक्सौल, नेपाल के बीरगंज शहर के निकट स्थित है। दोनों शहरों के बीच की जीवनशैली और आवाजाही इतनी घुलमिल गई है कि बाहरी व्यक्तियों के लिए यह केवल एक चेकपोस्ट जैसा प्रतीत होता है। भारतीय और नेपाली नागरिक यहां बिना किसी रोकटोक के आते-जाते हैं। रिक्शे और ऑटो रक्सौल स्टेशन से यात्रियों को बीरगंज तक पहुंचाते हैं, जैसे कि यह एक ही शहर का हिस्सा हों।
इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि रक्सौल और बीरगंज एक संयुक्त नगर के रूप में विकसित हो सकते थे, यदि 1814-16 का एंग्लो-नेपाल युद्ध न हुआ होता। इस युद्ध के बाद, ब्रिटिश साम्राज्य ने 1816 में सुगौली संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसने भारत और नेपाल के बीच की सीमा निर्धारित की। रक्सौल भारत का हिस्सा बन गया और तब से यह दोनों देशों के बीच व्यापार और यातायात का मुख्य मार्ग बन गया। पहले इस कस्बे को फलेजरगंज कहा जाता था, किंतु यह स्पष्ट नहीं है कि इसका नाम कब और कैसे बदलकर रक्सौल रखा गया।
जब 1951 में यह विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में आया, तब से 1952 के पहले आम चुनाव से इस क्षेत्र में मतदान प्रारंभ हुआ। प्रारंभिक दशकों में यह कांग्रेस का गढ़ रहा। 1952 से 1985 तक हुए नौ चुनावों में से आठ बार कांग्रेस ने जीत हासिल की। केवल 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने कांग्रेस को हराया था।
90 के दशक में समीकरण बदले और जनता दल ने 1990 तथा 1995 में यहां जीत हासिल की। 2000 के बाद से रक्सौल लगातार भाजपा का गढ़ बना रहा। खास बात यह रही कि 2000 से 2015 तक अजय कुमार सिंह ने भाजपा के टिकट पर पांच बार जीत हासिल की। 2020 में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया और जनता दल (यू) से आए प्रमोद कुमार सिन्हा को उम्मीदवार बनाया। स्थानीय स्तर पर इसका विरोध हुआ, लेकिन सिन्हा ने 36 हजार से अधिक मतों के अंतर से जीत हासिल कर ली। इस जीत ने साबित किया कि यहां भाजपा की जीत किसी व्यक्ति पर निर्भर नहीं, बल्कि संगठन और पार्टी की गहरी जड़ों का परिणाम है।
2020 के विधानसभा चुनाव में रक्सौल सीट पर 2,78,018 मतदाता पंजीकृत थे और मतदान प्रतिशत 64.03 रहा। वहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव में इसी क्षेत्र में मतदान 64.48 प्रतिशत और 2015 के विधानसभा चुनाव में 63.09 प्रतिशत दर्ज किया गया था।
2024 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं की संख्या बढ़कर 2,87,287 हो गई, जबकि मतदान केंद्रों की संख्या घटकर 289 रह गई, जो 2020 में 390 थी।
दिलचस्प बात यह है कि रक्सौल को सामान्यतः ग्रामीण सीट माना जाता है। यहां 87 प्रतिशत से अधिक मतदाता ग्रामीण इलाकों से आते हैं, जबकि शहरी वोटरों की हिस्सेदारी लगभग 13 प्रतिशत है। फिर भी भाजपा ने यहां लगातार जीत दर्ज कर यह धारणा तोड़ दी है, जिसे अक्सर शहरी और मध्यम वर्ग की पार्टी कहा जाता है।
2008 में हुए परिसीमन के बाद रक्सौल पश्चिम चंपारण लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा बना। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इस संसदीय क्षेत्र की सभी छह विधानसभा सीटों पर बढ़त बनाई। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि आने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी के पास इस सीट को बनाए रखने के पूरे मौके हैं।