क्या रोहिंग्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच की टिप्पणियाँ संविधान-विरोधी हैं?
सारांश
Key Takeaways
- संविधानिक नैतिकता का पालन आवश्यक है।
- मानवाधिकारों की रक्षा हर व्यक्ति का अधिकार है।
- सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ गंभीर मुद्दे हैं।
- खुले पत्र ने सामाजिक न्याय की बात की।
- अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रियाएँ महत्वपूर्ण हैं।
नई दिल्ली, 5 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। कई पूर्व न्यायाधीशों, वरिष्ठ अधिवक्ताओं और मानवाधिकार संगठन ‘कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स’ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक खुला पत्र भेजकर अपनी गंभीर चिंताओं का इज़हार किया है। इस पत्र में 2 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच द्वारा रोहिंग्या शरणार्थियों के मामले में की गई टिप्पणियों को संविधान विरोधी, अमानवीय और गैर-जिम्मेदाराना बताया गया है.
यह सुनवाई रोहिंग्या शरणार्थियों के कथित कस्टोडियल गायब होने की याचिका पर हो रही थी, जिसे प्रख्यात लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. रीता मनचंदा ने दायर किया था। याचिका में आरोप लगाया गया था कि भारत में कई रोहिंग्या शरणार्थियों को हिरासत में लेकर गायब कर दिया गया है। सुनवाई के दौरान बेंच ने रोहिंग्या को 'घुसपैठिए' कहा, उनसे यह पूछा कि क्या वे सुरंग खोदकर भारत में घुसे हैं, क्या उन्हें भोजन, पानी और शिक्षा का अधिकार है, और भारत की गरीबी का हवाला देकर उनके अधिकारों पर सवाल उठाए।
खुले पत्र में कहा गया है कि ये टिप्पणियां संविधान के मूल्यों के खिलाफ हैं और नरसंहार से भाग रहे लोगों को और अपमानित करती हैं। संयुक्त राष्ट्र ने रोहिंग्या को दुनिया का सबसे ज्यादा सताया जाने वाला अल्पसंख्यक बताया है। म्यांमार में दशकों से उनके साथ जातीय घटनाएं और नरसंहार हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने भी इसे नरसंहार माना है। लाखों रोहिंग्या बांग्लादेश, भारत और अन्य देशों में शरण लिए हुए हैं.
पत्र लिखने वालों ने याद दिलाया कि अनुच्छेद-21 हर व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार देता है, चाहे वह भारतीय नागरिक हो या नहीं। 1996 के अपने ही फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्य हर इंसान की जिंदगी की रक्षा करने को बाध्य है। भारत ने तिब्बतियों, श्रीलंकाई तमिलों और 1971 में बांग्लादेश से आए लाखों शरणार्थियों को सम्मान के साथ शरण दी थी। लेकिन रोहिंग्या के मामले में कोर्ट की यह भाषा नफरत को बढ़ावा देती है और न्यायपालिका की नैतिक साख को नुकसान पहुंचाती है.
पत्र में चीफ जस्टिस से अपील की गई है कि वे खुद और पूरी न्यायपालिका संविधानिक नैतिकता, मानवीय करुणा और हर इंसान की गरिमा की रक्षा के लिए फिर से प्रतिबद्धता दिखाएं। कोर्ट के शब्द सिर्फ कोर्टरूम में नहीं, पूरे देश की अंतरात्मा पर असर डालते हैं। गरीबों, बेसहारा और हाशिए पर जी रहे लोगों के लिए सुप्रीम कोर्ट आखिरी उम्मीद होती है। ऐसे में इस तरह की टिप्पणियां लोगों का भरोसा तोड़ती हैं और कमजोर तबकों के लिए खतरा बन जाती हैं.
पत्र पर दस्तखत करने वालों में कई रिटायर्ड जज, वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट की गरिमा फैसलों की संख्या से नहीं, बल्कि उनमें दिखाई देने वाली इंसानियत से बनती है। रोहिंग्या मामला अभी कोर्ट में लंबित है, लेकिन 2 दिसंबर की टिप्पणियों ने पूरे देश में मानवाधिकार समुदाय को स्तब्ध कर दिया है।