क्या नहीं रहे शिबू सोरेन? जानिए उनके राजनीतिक सफर की कहानी

सारांश
Key Takeaways
- शिबू सोरेन का निधन झारखंड की राजनीति में एक बड़ा बदलाव है।
- उन्होंने आदिवासी अधिकारों के लिए कई संघर्ष किए।
- उनकी विरासत उनके बेटे हेमंत सोरेन द्वारा आगे बढ़ाई जा रही है।
रांची, 4 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। 38 वर्षों तक झारखंड मुक्ति मोर्चा का नेतृत्व करने वाले शिबू सोरेन का सोमवार को निधन हो गया। वे पिछले एक महीने से दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में इलाज करा रहे थे, जहाँ डॉक्टरों की एक समर्पित टीम उनकी देखरेख कर रही थी।
सोमवार सुबह, शिबू सोरेन के बेटे और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपने पिता के निधन की सूचना सोशल मीडिया पर साझा की। आइए, एक नजर डालते हैं शिबू सोरेन की राजनीतिक यात्रा पर।
शिबू सोरेन को ‘दिशोम गुरु’ के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ (तत्कालीन हजारीबाग) जिले के नेमरा गांव में हुआ।
उनके पिता सोबरन मांझी की 1957 में हत्या ने उनके जीवन को बदल दिया, जिसके बाद उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों की शुरुआत की। शिबू ने 1970 के दशक में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की स्थापना की और सूदखोरी, शराबबंदी, और आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
शिबू सोरेन 1971 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव बने। उन्होंने 1977 में दुमका लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद 1980 में वे पहली बार सांसद चुने गए। इसके बाद 1989, 1991, 1996, और 2002 में भी वे दुमका से सांसद रहे। लोकसभा के साथ-साथ, शिबू सोरेन अपने राजनीतिक करियर में राज्यसभा के भी सदस्य रहे। उन्होंने झारखंड अलग राज्य आंदोलन का नेतृत्व किया, जो 2000 में सफल हुआ।
शिबू सोरेन तीन बार (बारी-बारी से 2005, 2008-09, 2009-10) झारखंड के मुख्यमंत्री बने, हालाँकि वे कभी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। 2004 में वे यूपीए सरकार में कोयला मंत्री बने, लेकिन चिरूडीह कांड और शशि नाथ झा हत्या मामले में विवादों के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। बाद में उन्हें उच्च न्यायालय से राहत मिली।
उनका नाम 1993लक्ष्मीनिया जीप आंदोलन के दिनों की प्रतीक रही। उनके बेटे हेमंत सोरेन और अन्य परिवार के सदस्य भी जेएमएम के जरिए उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।