क्या कभी हॉकी स्टिक खरीदने के लिए पैसे नहीं थे? चार बार ओलंपिक में बढ़ाई भारत की शान

सारांश
Key Takeaways
- धनराज पिल्लै का सफर संघर्ष और प्रेरणा का अद्भुत उदाहरण है।
- उन्होंने हॉकी में अपनी मेहनत से भारत का नाम रोशन किया।
- चार बार ओलंपिक में भाग लेना उनके अद्वितीय कौशल को दर्शाता है।
- उनकी कहानी हमें सिखाती है कि कड़ी मेहनत और संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाते।
- धनराज पिल्लै को मिले पुरस्कार उनकी खेल में उत्कृष्टता का प्रमाण हैं।
नई दिल्ली, 15 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। महाराष्ट्र के खड़की में 16 जुलाई 1968 को एक गरीब परिवार में एक चौथे बेटे का जन्म हुआ, जो पहले तीन बेटों के बाद आया। परिवार की उम्मीद थी कि यह बेटा उनकी गरीबी दूर करेगा, इसलिए उसका नाम धनराज रखा गया।
खड़की को हॉकी का गढ़ माना जाता है, जहां धनराज पिल्लै के पिता नागालिंगम पिल्लै ग्राउंड्समैन थे। परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि पिता की तनख्वाह से परिवार को बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया नहीं हो पा रही थीं।
धनराज का बचपन हॉकी के चारों ओर घूमता रहा। शाम को वह अक्सर उन बच्चों को हॉकी खेलते देखते थे जो उनके घर के पास एकत्र होकर चमचमाती स्टिक के साथ खेला करते थे। धनराज के बड़े भाई रमेश और अनंत हॉकी खिलाड़ी थे और उन्हें इस खेल के लिए प्रेरित करते थे। धनराज ने इस खेल को नजदीक से देखा और हॉकी सीखने का निश्चय किया।
आखिरकार, धनराज एक पुरानी हॉकी स्टिक के साथ इन बच्चों के बीच खेलने लगे, लेकिन उन्हें नई स्टिक की आवश्यकता थी। जब उन्होंने अपने भाई से यह बात कही, तो उन्होंने नई हॉकी स्टिक पाने के लिए प्रैक्टिस करते रहने को कहा। हालांकि, परिवार के पास इसके लिए पैसे नहीं थे, लेकिन बड़े भाई नहीं चाहते थे कि धनराज का मनोबल टूटे। धनराज ने नई हॉकी स्टिक की चाह में प्रैक्टिस करते हुए अपनी Skills को निखारा।
रमेश पिल्लै उस समय मुंबई के एक क्लब में खेल रहे थे। उनके समर्थन से धनराज भी मुंबई आ गए। उस समय टीम को एक खिलाड़ी की आवश्यकता थी और धनराज को एक्स्ट्रा खिलाड़ियों में शामिल किया गया। धीरे-धीरे, अपने शानदार खेल के कारण धनराज टीम के अहम खिलाड़ी बन गए।
साल 1987 में संजय गांधी टूर्नामेंट में दिल्ली के मैदान पर लोगों ने इस लंबे और दुबले-पतले लड़के को देखा, जिसकी तकनीक अद्भुत थी। उस समय के मशहूर खिलाड़ी राजिंदर ने धनराज के चंगुल से बॉल निकालकर गोल दागे। धनराज के शॉट बुलेट जैसी गति से आए। इस मैच में वह बेस्ट प्लेयर रहे और नेशनल हॉकी चैंपियनशिप में अपनी जगह पक्की कर ली।
धनराज पिल्लै ने मुंबई की ओर से खेलते हुए कई पेनाल्टी कॉर्नर को गोल में तब्दील किया। उनके शानदार प्रदर्शन को देखते हुए 1989 में उन्हें अपना इंटरनेशनल मैच खेलने का मौका मिला। यह एल्विन एशिया कप था, जो नई दिल्ली में खेला गया।
धनराज पिल्लै 1994 वर्ल्ड कप के दौरान वर्ल्ड इलेवन टीम में शामिल होने वाले एकमात्र भारतीय थे। उन्होंने मलेशिया, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों के क्लबों के लिए भी खेला।
धनराज पिल्लै ने अपने शानदार खेल से टीम की कमान संभाली। भारत ने 1998 में धनराज पिल्लै की कप्तानी में एशियन गेम्स जीता, जबकि 2003 में एशिया कप पर कब्जा किया।
फील्ड हॉकी के लीजेंड धनराज पिल्लै ने अपने करियर में चार ओलंपिक (1992, 1996, 2000 और 2004), चार विश्व कप (1990, 1994, 1998 और 2002), और चार चैंपियंस ट्रॉफी (1995, 1996, 2002 और 2003) खेले। उन्होंने 1990, 1994, 1998 और 2002 में एशियन गेम्स भी खेले।
धनराज पिल्लै को 1999-2000 के लिए देश के सर्वोच्च खेल सम्मान 'राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार' से सम्मानित किया गया, जिसके बाद 2001 में उन्हें 'पद्मश्री' से नवाजा गया।
2004 में धनराज पिल्लै ने 36 वर्ष की आयु में अपने अंतरराष्ट्रीय करियर से संन्यास ले लिया। 16 साल के करियर में उन्होंने अपनी हॉकी के जादू से फैंस को मंत्रमुग्ध किया।