क्या गुरु हर किशन जी की सेवा की कहानी आज भी हमारे लिए प्रेरणादायक है?

सारांश
Key Takeaways
- गुरु हर किशन जी ने अपने जीवन में निःस्वार्थ सेवा का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।
- उन्होंने महज पाँच वर्ष की उम्र में गुरु गद्दी संभाली।
- गुरु जी ने सभी जाति-धर्म के बीमारों की सेवा की।
- उनकी कहानी आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
- गुरुद्वारा बंगला साहिब आज श्रद्धा का केंद्र है।
नई दिल्ली, 6 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। जब भी सिखों के इतिहास में निःस्वार्थ सेवा, करुणा और मानवता के अद्भुत उदाहरणों की बात होती है, तब गुरु हर किशन जी का नाम श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। सिखों के आठवें गुरु, गुरु हर किशन जी ने केवल पाँच वर्ष की आयु में गुरु गद्दी संभाली और अपने छोटे से जीवन में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसे आज भी दुनिया श्रद्धा से याद करती है।
गुरु हर किशन जी का जन्म 7 जुलाई 1656 को पंजाब के कीरतपुर साहिब में हुआ था। वह गुरु हर राय जी और माता कृष्ण कौर (सुलक्षणी जी) के छोटे पुत्र थे। वह बचपन से ही शांत, करुणामयी और आध्यात्मिक गुणों से भरपूर थे। उनके विचारों में भेदभाव, जाति-पाति या उम्र का कोई महत्व नहीं था। उनके बड़े भाई राम राय को उनके पिता ने सिख मर्यादाओं से भटकने के कारण पहले ही गुरु गद्दी से हटा दिया था। नतीजतन, केवल पाँच वर्ष की आयु में गुरु हर राय जी ने अपने छोटे पुत्र हर किशन को अष्टम नानक घोषित किया।
गुरु बनने की बात सुनकर राम राय इतने आक्रोशित हो गए कि उन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब से इसकी शिकायत कर दी। औरंगजेब, जो स्वयं धर्म के नाम पर अनेक खेल खेल चुका था, बाल गुरु की लोकप्रियता से चकित और विचलित था। उसने गुरु जी को दिल्ली बुलाने का आदेश दिया, यह देखने के लिए कि इतना छोटा बालक कैसे लोगों के दिलों पर राज कर रहा है। इस कार्य को दिल्ली के राजा जय सिंह को सौंपा गया। शुरू में गुरु जी ने दिल्ली जाने से मना कर दिया, लेकिन उनके अनुयायियों और राजा जय सिंह के बार-बार आग्रह पर उन्होंने इस यात्रा को स्वीकार किया।
दिल्ली पहुँचने पर राजा जय सिंह ने उन्हें अपने बंगले में ठहराया, जो आज का प्रसिद्ध गुरुद्वारा बंगला साहिब है। उस समय दिल्ली में चेचक और हैजे की महामारी फैली हुई थी। इस नन्हें बालक ने अपने छोटे-से हाथों और विशाल हृदय से हर जाति-धर्म के बीमारों की सेवा की। उन्होंने पानी दिया, देखभाल की और बिना भेदभाव के हर दुखी को अपनाया। उनकी इस सेवा को देखकर स्थानीय मुसलमान उन्हें 'बाल पीर' कहकर सम्मानित करने लगे।
सेवा करते-करते गुरु हरकिशन जी खुद भी चेचक की चपेट में आ गए। कई दिनों तक वह तेज बुखार में तपते रहे। अंत समय में उन्होंने अपनी माता को पास बुलाया और कहा, "अब मेरा समय निकट है, मेरा उत्तराधिकारी 'बाबा बकाला' में मिलेगा।" यह संकेत था कि अगले गुरु, गुरु तेग बहादुर होंगे, जो उस समय पंजाब के बकाला गांव में रह रहे थे।
30 मार्च 1664 को महज आठ वर्ष की आयु में गुरु हरकिशन जी ने "वाहेगुरु" का जाप करते हुए इस संसार से विदा ली।
जहां गुरु हरकिशन जी ने अंतिम समय बिताया, वही स्थान आज गुरुद्वारा बंगला साहिब के रूप में संसार भर में श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। इस गुरुद्वारे का सरोवर आज भी श्रद्धालुओं के लिए पवित्र माना जाता है।