क्या डॉ. प्रीति अदाणी ने हांगकांग समिट में दुनिया भर के परोपकारियों से 'बदलाव का सह-निर्माता' बनने की अपील की?

सारांश
Key Takeaways
- परोपकार को दान से आगे बढ़कर सहयोगात्मक मिशन में बदलना।
- डॉ. प्रीति अदाणी की प्रेरणादायक कहानियों से सीखना।
- सह-निर्माता बनने की आवश्यकता।
- समाज में वास्तविक परिवर्तन लाने के लिए समर्पण।
- बदलाव के लिए संख्याओं से ज्यादा कहानियों का महत्व।
हांगकांग, 9 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। एशियन वेंचर फिलैंथ्रोपी नेटवर्क (एवीपीएन) समिट में अदाणी फाउंडेशन की अध्यक्ष डॉ. प्रीति अदाणी ने परोपकार को एक जिम्मेदारी पर आधारित सहयोगात्मक मिशन के रूप में विकसित करने का आह्वान किया।
उन्होंने अपनी बात को कच्छ के रेगिस्तान की एक प्रेरणादायक कहानी से शुरू किया। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने एक महिला को सूखी, बंजर भूमि में बीज बोते हुए देखा।
जब उनसे पूछा गया कि वह इतनी कठिन परिस्थितियों में बीज क्यों बो रही हैं, तो उन्होंने उत्तर दिया कि एक दिन बारिश आएगी, और अगर बीज नहीं बोए गए, तो बारिश के आने पर भी कुछ नहीं उगेगा।
डॉ. अदाणी ने इस दृढ़ता और विश्वास को समाज सेवा के कार्यों के लिए एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया और एवीपीएन को केवल एक नेटवर्क नहीं, बल्कि बदलाव का एक मूवमेंट बताया, जिसमें सभी मिलकर नदियों की तरह एक महासागर बनाते हैं।
डॉ. अदाणी ने अपने व्यक्तिगत सफर का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने अहमदाबाद में एक युवा डेंटिस्ट से लेकर अपने पति गौतम अदाणी के राष्ट्र निर्माण के दृष्टिकोण को पूरा करने के लिए अपने पेशे को छोड़ने तक की यात्रा साझा की।
उन्होंने कहा कि उनके पति गौतम अदाणी का यह मानना है कि विकास का असली मूल्य निर्माण में नहीं, बल्कि स्कूल, अस्पताल और सस्टेनेबल डेवलपमेंट में है, जो समुदायों को बेहतर बनाते हैं।
इसी विश्वास ने 1996 में अदाणी फाउंडेशन की स्थापना को प्रेरित किया। यह फाउंडेशन अब भारत के सबसे बड़े सामाजिक प्रभाव संगठनों में से एक बन चुका है, जिसे परोपकार के लिए 7 बिलियन डॉलर का पारिवारिक संकल्प प्राप्त है।
फाउंडेशन अब एजुकेशन, हेल्थकेयर, पोषण, सस्टेनेबल आजीविका और क्लाइमेट एक्शन के क्षेत्रों में काम करते हुए 7,000 गांवों और 96 लाख से अधिक लोगों तक अपनी पहुंच बना चुका है।
उन्होंने जोर देकर कहा कि फाउंडेशन की सफलता का असली पैमाना संख्याओं में नहीं, बल्कि उनके पीछे की कहानियों में है।
डॉ. अदाणी ने गुजरात के एक तीन साल के बच्चे की कहानी सुनाई, जिसका वजन केवल आठ किलोग्राम था और जो धीरे-धीरे कमजोर हो रहा था। फाउंडेशन द्वारा प्रशिक्षित एक स्थानीय महिला ने बच्चे की मां का मार्गदर्शन किया और सुनिश्चित किया कि बच्चा फिर से स्वस्थ हो जाए।
उन्होंने महाराष्ट्र की एक विधवा मां रेखा की कहानी बताई, जिसने अपने गांव में मिल्क चिलिंग सेंटर चलाने वाली पहली महिला बनकर निराशा पर विजय प्राप्त की। उन्होंने सौ से अधिक लोगों को अपने नक्शेकदम पर चलने के लिए प्रेरित किया।
डॉ. अदाणी ने मुंद्रा की सोनल की कहानी भी साझा की, जिसने अदाणी स्कूल में अपनी पढ़ाई पूरी कर आयरलैंड से मास्टर डिग्री हासिल की और आज एप्पल में काम करती है।
डॉ. अदाणी ने कहा कि ये कहानियां बताती हैं कि लाभार्थियों को केवल मदद पाने वाला नहीं, बल्कि आशा के निर्माता और प्रभाव बढ़ाने वाला बनना चाहिए। उन्होंने कहा, "यह ताली बजाने का नहीं, बल्कि प्रतिबद्धता का क्षण है।"
उन्होंने तर्क दिया कि वास्तविक परिवर्तन केवल डोनर बनने के बजाय सह-निर्माता बनने में निहित है। यह तभी संभव है जब हर योगदान सरकार, व्यापार और समाज के साथ मिलकर एक बड़ी साझेदारी का हिस्सा बने। असली बदलाव तब आएगा जब हम मदद पाने वालों को ऐसे लोगों में बदल देंगे जो इस मदद के असर को और आगे बढ़ा सकें।
हमें ऐसी जनरेशन बनना होगा जो सूखे में बीज बोती हो, बारिश के आने से पहले ही इसके आने पर विश्वास करती हो और जो सभी के लिए सम्मान और अवसरों के मौके पेश करती हो। उन्होंने कहा कि बारिश आएगी जब आएगी तो इतिहास को याद रखना होगा कि किसी ने तो बीज बोए थे, किसी ने तो अपनी नदियों को सहयोग के सागर में मिलाया था और लाखों लोगों के लिए आशा की किरण जगाई थी।