क्या कांग्रेस कदवा विधानसभा सीट बचा पाएगी? जनता किस दल पर भरोसा जताएगी?

सारांश
Key Takeaways
- कदवा विधानसभा क्षेत्र का इतिहास और राजनीतिक समीकरण
- कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था की स्थिति
- कांग्रेस की शकील अहमद खान की स्थिति
- मतदाता संख्या और मतदान प्रतिशत
- 2025 के चुनाव में संभावित बदलाव
नई दिल्ली, 2 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। बिहार के कटिहार जिले का कदवा विधानसभा क्षेत्र हमेशा चर्चाओं में रहा है। यह सीट न केवल राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके सामाजिक-सांस्कृतिक और भौगोलिक पहलुओं के कारण भी यह चर्चा का विषय बनी रहती है। कदवा की राजनीतिक स्थिति लगातार बदलते समीकरणों के साथ विकसित होती रही है। वर्ष 2000 में यहाँ राजद, 2005 में जदयू और 2010 में भाजपा ने जीत प्राप्त की थी। इसके बाद, 2015 और 2020 में कांग्रेस के शकील अहमद खान ने लगातार दो बार जीत हासिल कर कांग्रेस की स्थिति को मजबूत किया। यदि इस बार एंटी इनकंबेंसी फैक्टर प्रभावी नहीं हुआ, तो कांग्रेस यहाँ फिर से मजबूत स्थिति में रह सकती है, लेकिन मुकाबला काफी कड़ा रहने वाला है।
कदवा विधानसभा क्षेत्र का राजनीतिक इतिहास भी काफी रोचक है। इसकी स्थापना 1951 में हुई थी, लेकिन 1962 के बाद परिसीमन के कारण इसे हटा दिया गया। लगभग 15 वर्षों के अंतराल के बाद 1977 में यह सीट फिर से अस्तित्व में आई। इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति राजनीतिक निर्णयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यहाँ हर वर्ष बाढ़ का संकट गहराता है। इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर निर्भर है, जिसमें धान, मक्का, जूट और केले की खेती होती है। यहाँ की पहचान मखाना और मछली उत्पादन से भी है, लेकिन बार-बार की बाढ़ ने लोगों की आजीविका प्रभावित की है।
जातीय समीकरणों की बात करें तो यह क्षेत्र विविधता से भरा हुआ है। यहाँ अति पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 30% है, जबकि मुस्लिम मतदाता 32% के करीब हैं। इसके अलावा ओबीसी 17%, अनुसूचित जाति 9%, अनुसूचित जनजाति 5% और सामान्य वर्ग केवल 5% है।
2020 विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के अनुसार कदवा में कुल 2,81,355 मतदाता थे, जिसमें से सिर्फ 60.31% ने मतदान किया, जो हाल के वर्षों में सबसे कम मतदान प्रतिशत था। मुस्लिम बहुल होने के बावजूद, धार्मिक आधार पर मतदान का प्रभाव स्पष्ट नहीं देखा गया है, अब तक यहाँ से 6 हिंदू और 8 मुस्लिम विधायक चुने जा चुके हैं। 2020 के चुनाव में कांग्रेस के शकील अहमद खान को 71,000 वोट मिले थे, जबकि जदयू को 38,000 और एलजेपी को 31,000 वोट मिले थे। एलजेपी की उपस्थिति ने जदयू के वोट काटे, और इसका फायदा कांग्रेस को मिला। यदि एलजेपी मैदान में नहीं होती, तो जदयू और कांग्रेस के बीच मुकाबला अधिक निकटता वाला होता।
2025 में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या जदयू फिर से उम्मीदवार उतारेगी या भाजपा सीट पर दावेदारी करेगी, और क्या एलजेपी फिर से तीसरा कोण बनेगी या गठबंधन की राजनीति में कोई बड़ा बदलाव होगा।
अब सवाल यह है कि जनता का रुख इस बार किस ओर होगा? कांग्रेस के शकील अहमद खान ने पिछले दो कार्यकाल में ऐसा क्या किया है कि जनता उन्हें फिर से मौका देगी? यदि एनडीए किसी लोकप्रिय और स्थानीय मुद्दों से जुड़े चेहरे को उतारता है, तो यह मुकाबला बहुत दिलचस्प हो सकता है।