क्या 'देख तेरे संसार की हालत...' लिखने वाला कवि खुद जीवन की सबसे कड़वी सच्चाई का बना शिकार?
सारांश
Key Takeaways
- कवि प्रदीप ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- उनका गीत 'देख तेरे संसार की हालत' समाज में नैतिकता की कमी पर सवाल उठाता है।
- कवि प्रदीप का जीवन संघर्ष और कला का प्रतीक है।
- उन्हें दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- उनकी विरासत को आज भी सराहा जाता है।
नई दिल्ली, 10 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। 1943 में प्रदर्शित फिल्म 'किस्मत' ने देशभर के सिनेमाघरों में धूम मचा दी थी। इस फिल्म की सफलता का मुख्य कारण इसका साहसी और क्रांतिकारी गीत था, जिसमें कहा गया था, 'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है। दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है।'
यह गीत ब्रिटिश सेंसरशिप को मात देकर बड़े पर्दे पर गूंजा और स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक गुप्त राष्ट्र गीत बन गया। इस गीत की लोकप्रियता ने फिल्म को भारत की पहली गोल्डन जुबली हिट बना दिया, लेकिन इसके लेखक पर ब्रिटिश हुकूमत का कहर भी टूट पड़ा।
गीतकार कवि प्रदीप (रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी) को इस बात का भान था कि उनकी कलम ने बारूदक्रांतिकारी की तरह छिपना पड़ा। यह शायद भारतीय सिनेमा के इतिहास में किसी गीतकार के राजनीतिक प्रभाव का सबसे बड़ा प्रमाण है।
परंतु, यह कहानी केवल भूमिगत जीवन और देशभक्ति की नहीं है। यह उस व्यक्ति की कहानी है, जिसकी कला ने लाखों लोगों को जागरूक किया और जिसने प्रधानमंत्री की आंखों में आंसू ला दिए, लेकिन अंततः वह अपने जीवन में सबसे बड़ी नैतिक त्रासदी का शिकार हुआ।
कवि प्रदीप का जन्म 6 फरवरी 1915 को मध्य प्रदेश के बड़नगर में हुआ। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपनी साहित्यिक महत्वाकांक्षाओं के साथ बंबई का रुख किया।
फिल्म उद्योग में प्रवेश करने के लिए उन्होंने अपनी पहचान (रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी) को छोटा करते हुए 'कवि प्रदीप' नाम अपनाया। यह परिवर्तन केवल व्यावसायिक नहीं था, बल्कि उन्होंने खुद को राष्ट्रीय चेतना और कविता के प्रति समर्पित एक साहित्यिक हस्ती के रूप में प्रस्तुत किया।
1939 में, एक कवि सम्मेलन ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें बॉम्बे टॉकीज में 200 रुपए प्रति माह के वेतन पर नियुक्त किया, जहां से उनकी लगभग छह दशकों की रचनात्मक यात्रा शुरू हुई।
प्रदीप की क्रांतिकारी धार करियर की शुरुआत में ही दिखने लगी थी। 1940 में आई फिल्म 'बंधन' का गीत 'चल चल रे नौजवान' इतना प्रेरक था कि ब्रिटिश अधिकारियों ने इस पर तुरंत प्रतिबंध लगा दिया।
फिर 1943 में 'किस्मत' का वह गीत आया, जिसने उन्हें भूमिगत कर दिया। ब्रिटिश सरकार द्वारा गीतों पर प्रतिबंध लगाना इस बात का प्रमाण है कि औपनिवेशिक प्रशासन ने उनकी कला को गंभीर खतरा माना।
कवि प्रदीप की विरासत का सबसे पवित्र अध्याय 27 जनवरी 1963 को लिखा गया, जब उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि देते हुए एक गीत लिखा, 'ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी।'
जब लता मंगेशकर ने इस गीत को 50,000 की भीड़ के सामने गाया, तो इसकी भावनात्मक शक्ति ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी अश्रुपूरित कर दिया। यह गीत राष्ट्रीय पहचान को मजबूत करने वाला एक सांस्कृतिक स्मारक बन गया।
विडंबना यह थी कि इस राष्ट्रीय एकता के सांस्कृतिक क्षण में, इसके रचयिता कवि प्रदीप को प्रीमियर में आमंत्रित नहीं किया गया। सामूहिक सम्मान और व्यक्तिगत उपेक्षा का यह विरोधाभास उनके जीवनभर चलता रहा।
स्वतंत्रता के बाद, कवि प्रदीप ने भारतीय समाज में बढ़ते भौतिकवाद और नैतिक पतन पर तीखी आलोचना की। उन्होंने फिल्म 'नास्तिक' (1954) में अपनी चिंता व्यक्त करते हुए एक गीत लिखा, जिसके बोल थे, 'देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान।'
उनकी दार्शनिक विचारधारा फिल्म 'संबंध' के गीत 'चल अकेला चल अकेला तेरा मेला पीछे छूटा' में मुखर हुई। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था कि यह गाना उन्होंने पैसों के लालच और समाज में उभरते दुर्गुणों से दुखी होकर लिखा था। यह अत्यंत मार्मिक है कि जिस नैतिक गिरावट की उन्होंने अपनी कला में निंदा की, वह उनके स्वयं के जीवन की कड़वी सच्चाई बन गई।
1997 में, उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। यह उनके पांच दशकों के असाधारण योगदान की राष्ट्रीय स्वीकृति थी।
लेकिन, यह सर्वोच्च सम्मान उन्हें तब मिला, जब उनका व्यक्तिगत जीवन घोर संकट में था। पत्नी के निधन के बाद, वे स्वयं लकवाग्रस्त हो चुके थे। सबसे बड़ी त्रासदी यह थी कि उनकी चार संतानों, तीन बेटियों और एक बेटे ने कथित तौर पर उन्हें अकेला छोड़ दिया। जिनके लिए उन्होंने मानवीय मूल्यों के ह्रास पर गीत लिखे थे, उन्हें उसी नैतिक पतन का शिकार होना पड़ा।
कोलकाता के एक व्यवसायी प्रदीप कुंडलिया ने उन्हें अपने फ्लैट में जगह दी और उनकी देखभाल करवाई। राष्ट्रीय सम्मान और व्यक्तिगत उपेक्षा का यह तीखा विरोधाभास उनकी कला की सत्यता का सबसे बड़ा प्रमाण बन जाता है।
11 दिसंबर 1998 को 83 वर्ष की आयु में कवि प्रदीप का निधन हो गया। उनका निधन तब हुआ जब उनकी विरासत को राष्ट्रीय स्तर पर अंतिम मुहर लग चुकी थी। उनकी विरासत को संस्थागत रूप से संरक्षित किया गया है। 2011 में डाक टिकट और 'राष्ट्रीय कवि प्रदीप सम्मान' की शुरुआत की गई।