क्या 17 साल बाद भी मालेगांव बम विस्फोट का गुनहगार नहीं मिला?

सारांश
Key Takeaways
- मालेगांव धमाका एक महत्वपूर्ण घटना थी जिसने राजनीति को प्रभावित किया।
- इस मामले में भगवा आतंकवाद का नाम लिया गया था।
- जांच में कई विवादास्पद मुद्दे सामने आए।
- 17 साल बाद भी असली गुनहगार का पता नहीं चला।
- राजनीतिक दबाव और जांच एजेंसियों के कार्यों पर सवाल उठे।
नई दिल्ली, 7 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। 29 सितंबर 2008 की रात मालेगांव के 'भिक्कू चौक' पर हुआ धमाका कुछ क्षणों का था, लेकिन इसका असर राजनीति, समाज और न्याय व्यवस्था में 17 साल तक महसूस किया जाता रहा। सवाल आज भी उठता है कि इन धमाकों का असली गुनहगार कौन है? क्योंकि जिस तरह से 'भगवा आतंकवाद' की कथा गढ़ी गई थी, वह अदालत में नाकाम साबित हुई है।
यह स्पष्ट है कि मालेगांव का यह धमाका केवल एक हादसा नहीं था, बल्कि एक महत्वपूर्ण मोड़ था जिसने भारत की राजनीति और आतंकवाद की परिभाषा को हिलाकर रख दिया। बम विस्फोट को एक नैरेटिव के रूप में प्रस्तुत किया गया और इसे नाम दिया गया, 'भगवा आतंकवाद', जिसमें न्याय की लड़ाई से ज्यादा राजनीतिक दुश्मनी दिखाई दी।
विस्फोट के समय रात के करीब साढ़े 9 बजे बाजारों में रौनक थी। तभी मस्जिद के सामने धमाका हुआ। यह धमाका इतना जोरदार था कि आसपास की दुकानें और मकान हिलने लगे। यह धमाका राजनीति को भी हिला गया। जांच एटीएस को सौंपी गई और फिर एक संस्था 'अभिनव भारत' का नाम सामने आया। यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि मालेगांव विस्फोट को राजनीतिक रंग देने का प्रयास किया गया।
इसके बाद कई हाई प्रोफाइल गिरफ्तारियां हुईं। आरोप हिंदूवादी नेताओं पर थे, जिनमें प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित जैसे बड़े नाम शामिल थे। इसके अलावा रमेश उपाध्याय, अजय राहिरकर, समीर कुलकर्णी, सुधाकर चतुर्वेदी और सुधाकर धार द्विवेदी का नाम सामने आया। एटीएस की शुरुआती जांच में कहा गया कि विस्फोट में इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल प्रज्ञा ठाकुर की थी और पुरोहित ने जम्मू-कश्मीर से आरडीएक्स लाकर अपने घर में रखा था। इसलिए उन पर मकोका और यूएपीए जैसे कानून थोप दिए गए।
सिर्फ यही नहीं, संघ प्रमुख मोहन भागवत से लेकर योगी आदित्यनाथ तक कई लोगों की गिरफ्तारी का प्रयास किया गया। मालेगांव ब्लास्ट मामले के गवाह मिलिंद जोशीराव ने एक बयान में कहा था, "एटीएस के अधिकारी उन पर दबाव बना रहे थे कि योगी आदित्यनाथ का भी नाम लें, ताकि उन्हें गिरफ्तार किया जा सके।" एटीएस उन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ नेताओं के नाम लेने का दबाव डाल रही थी, जिसमें योगी आदित्यनाथ का नाम भी शामिल था।
महाराष्ट्र एटीएस के एक पूर्व अधिकारी, जो 2008 के मालेगांव बम धमाके की जांच टीम का हिस्सा थे, ने भी खुलासा किया कि कुछ नेताओं को झूठे मामलों में फंसाने के आदेश थे। यही वह समय था जब 'भगवा आतंकवाद' शब्द ने जोर पकड़ना शुरू किया।
आरोपियों में शामिल साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने भी यह दावा किया था कि उन्हें जांच एजेंसियों की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ का नाम लेने के लिए मजबूर किया गया था।
साध्वी प्रज्ञा ने कहा था, "हां, मुझे मजबूर किया गया था। मैंने किसी का नाम नहीं लिया, किसी को झूठा नहीं फंसाया। इसलिए, मुझे बहुत प्रताड़ित किया गया। 17 साल तक अपमान और यातना का सामना करना पड़ा।"
हालांकि, जब मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई तो 323 गवाहों में से 40 गवाह अपने बयानों से मुकर गए थे। कई ने एटीएस पर गंभीर आरोप लगाए थे। आख़िरकार, 31 जुलाई 2025 को मुंबई की एनआईए कोर्ट ने अंतिम फैसला सुनाया और सभी 7 आरोपियों को बरी कर दिया। इस फैसले ने 17 साल की जांच और सुनवाई को एक झटके में शून्य पर लाकर खड़ा कर दिया।
फिर भी, सवाल है कि 17 साल बाद भी मालेगांव धमाके के असली दोषी का पता नहीं चल पाया।