क्या 'कबिबर' राधानाथ राय ने उड़िया भाषा की सांस्कृतिक पहचान को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई?

Key Takeaways
- राधानाथ राय ने उड़िया भाषा की पहचान को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- उनकी रचनाएँ सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण थीं।
- उड़िया साहित्य में उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा।
- उनकी लेखनी ने सांस्कृतिक पहचान को सहेजने का कार्य किया।
- राधानाथ राय की कहानी हमें प्रेरित करती है कि हम अपने सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करें।
नई दिल्ली, 26 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। यह गाथा ओडिया साहित्य के आधुनिक युग के जनक, 'कबिबर' राधानाथ राय की है, जो केवल एक कवि नहीं, बल्कि ओडिया भाषा के सजग प्रहरी भी थे। जब उड़ीसा ब्रिटिश शासन के अधीन था और बंगालियों को प्रशासनिक और शैक्षणिक व्यवस्था में विशेष दर्जा प्राप्त था, कुछ प्रभावशाली शिक्षाविदों ने प्रचार करना शुरू कर दिया कि 'उड़िया' बस बंगाली की एक 'उपभाषा' है। इसका परिणाम यह था कि उड़िया को स्कूलों से हटाने और ओडिशा की पहचान को धुंधला करने की तैयारी की जा रही थी। ऐसे नाजुक समय में, राधानाथ राय ने अपनी लेखनी से इस षड्यंत्र को न केवल विफल किया, बल्कि उड़िया भाषा को उसका सम्मानजनक स्थान दिलाने में निर्णायक भूमिका अदा की।
राधानाथ राय का जन्म 28 सितंबर 1848 को बालेश्वर जिले के केदारपुर गांव में एक जमींदार परिवार में हुआ था, जो उस समय बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन था और अब ओडिशा में है। अपने प्रारंभिक जीवन में उन्होंने उड़िया और बंगाली दोनों भाषाओं में रचनाएं कीं, लेकिन बाद में पूरी तरह से उड़िया में लेखन करने लगे। इसके पीछे एक प्रमुख कारण था उड़िया भाषा के अस्तित्व को बनाए रखना।
'ओडिया वर्चुअल अकादमी' की वेबसाइट पर उल्लेख है कि कुछ बंगाली शिक्षाविदों ने यह प्रचार किया कि उड़िया भाषा, बंगाली की एक उपभाषा है और इसे स्कूलों से हटाना चाहिए। इस षड्यंत्र का परिणाम यह था कि उड़िया छात्रों के लिए बंगाली पाठ्यपुस्तकें अनिवार्य कर दी गईं।
इसके खिलाफ आवाज उठी और बालासोर के तत्कालीन कलेक्टर जॉन बीम्स ने सबसे पहले यह साबित करने की कोशिश की कि उड़िया, बंगाली से अधिक प्राचीन है और इसका साहित्य अधिक समृद्ध है।
उड़िया भाषा में न तो पर्याप्त शिक्षक थे, न ही पाठ्यपुस्तकें। ऐसे कठिन समय में राधानाथ राय, फकीर मोहन सेनापति और मधुसूदन राव जैसे प्रबुद्ध साहित्यकारों ने मोर्चा संभाला।
उस समय राधानाथ राय, ओडिशा स्कूल एसोसिएशन के निरीक्षक थे। उन्होंने फकीर मोहन और मधुसूदन के साथ मिलकर स्कूली पाठ्य पुस्तकें लिखने को बढ़ावा देने का प्रयास किया। उनके दबाव में उड़िया लोगों पर बंगाली भाषा थोपने की साजिश नाकाम कर दी गई।
राधानाथ राय का योगदान केवल यहीं तक सीमित नहीं था। उन्होंने उड़िया भाषा में लेखन शुरू किया और 'केदार गौरी', 'महायात्रा नंदीकेश्वरी', 'चिलिका', 'महायात्रा- जाजतिकेशरी', 'तुलसीस्तबक', 'उर्वशी', 'दरबार', 'दशरथ बियोग', 'सावित्री चरित्र' और 'महेंद्र गिरि' जैसे कई प्रसिद्ध काव्य और महाकाव्य लिखे।
उनका काव्य-संग्रह 'दरबार' साल 1894 में प्रकाशित हुआ, जिसे समकालीन साहित्य में सराहा गया। 'दरबार' उनका एक व्यंग्यात्मक काव्य है, जिसमें उन्होंने ओडिशा के उस समय के जमींदारों और शासकों की कड़ी आलोचना की, जो ब्रिटिश अधिकारियों के दरबारों में शामिल होकर आम जनता की भलाई के लिए कुछ नहीं कर रहे थे।
इसके अलावा, उन्होंने 15 से अधिक निबंध लिखे। अपने मूल कार्यों के अलावा, वे लैटिन साहित्य से अनुवाद और रूपांतरण के लिए भी जाने जाते हैं, जिनमें 'उषा', 'चंद्रभागा' और 'पार्वती' शामिल हैं।
सिर्फ यही नहीं, 'चिलिका' जैसी रचनाएं आज भी उनकी प्रगतिशील सोच की मिसाल हैं।
राधानाथ राय का लेखन केवल साहित्यिक नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी क्रांतिकारी था। उन्होंने शासकों, अत्याचारियों और समाज में व्याप्त रूढ़ियों का विरोध किया। उनके काव्य में देशभक्ति, परंपरागत धार्मिक मान्यताओं पर प्रश्न, और सामाजिक चेतना के स्वर प्रमुख थे। इसी कारण वे अपने समय के शासकों की नाराजगी का शिकार भी हुए।
राधानाथ राय को बामरा रियासत के तत्कालीन राजा सुधल देव ने ‘कबिबर’ की उपाधि से सम्मानित किया था। यह सम्मान उनकी साहित्यिक उपलब्धियों का प्रतीक था।