क्या 'वैष्णव की फिसलन' परसाई की कृति आज भी समाज को आईना दिखाती है?

सारांश
Key Takeaways
- हरिशंकर परसाई का व्यंग्य समाज की कमियों को उजागर करता है।
- नैतिकता का मुखौटा पहनने वाले लोगों की पहचान करता है।
- समाज में पाखंड के नए रूपों पर ध्यान केंद्रित करता है।
- आज के सोशल मीडिया के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है।
- साहित्यिक संघर्ष और प्रेरणा का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
नई दिल्ली, 21 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। वर्तमान समय में लोग अपनी कमियों को दूर करने के बजाय दूसरों में खामियां खोजने में ज्यादा लगे रहते हैं। लोगों का मानना है कि जो वे कहते हैं, वह बिल्कुल सही है, लेकिन जो दूसरा व्यक्ति कहता है, वह गलत है और उसमें सुधार की आवश्यकता है। हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य 'वैष्णव की फिसलन' उन लोगों पर पूरी तरह से सत्यापित होता है, जो अपनी कमियों को छिपाने के लिए नैतिकता का मुखौटा पहन लेते हैं।
'वैष्णव की फिसलन' हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय रचना है, जो धार्मिक पाखंड और सामाजिक दिखावे पर तीखा प्रहार करती है। इस व्यंग्य में परसाई ने "बचाव पक्ष का बचपन" जैसे प्रतीकों के माध्यम से दिखाया है कि कैसे लोग अपनी कमियों को छुपाने के लिए नैतिकता का मुखौटा अपनाते हैं।
आज के समाज में, जहां सोशल मीडिया पर दिखावटी भक्ति, फर्जी नैतिकता और आडंबर का प्रचलन है, परसाई का यह व्यंग्य और भी प्रासंगिक बन जाता है। चाहे वह धर्म के नाम पर ठगी हो या नैतिकता का ढोंग।
'वैष्णव की फिसलन' आज के दौर में हमें आईना दिखाता है, जहां लोग अपनी फिसलन को छिपाने के लिए मासूमियत का बहाना बनाते हैं। परसाई की तीखी लेखनी आज भी हमें यह सवाल पूछने के लिए मजबूर करती है कि क्या हमारा समाज वाकई बदल गया है, या फिर मात्र पाखंड के नए-नए रूप सामने आ रहे हैं।
हरिशंकर परसाई का प्रारंभिक जीवन कई संघर्षों से भरा था। कम उम्र में माता-पिता की मृत्यु के बाद चार छोटे भाई-बहनों का भार उनके कंधों पर आ गया। आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने हिंदी में एमए किया और शिक्षण में डिप्लोमा प्राप्त किया। वन विभाग और स्कूलों में नौकरी करने के बाद 1947 में उन्होंने नौकरी छोड़कर स्वतंत्र लेखन को चुना। जबलपुर से उनकी साहित्यिक पत्रिका वसुधा निकली, जो घाटे के कारण बंद हो गई, लेकिन उनकी लेखनी कभी नहीं रुकी।
'परसाई से पूछें' कॉलम के माध्यम से परसाई ने जबलपुर और रायपुर के अखबार देशबंधु में 'परसाई से पूछें' कॉलम लिखा, जिसमें पहले हल्के-फुल्के सवालों के जवाब दिए जाते थे। धीरे-धीरे उन्होंने पाठकों को सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर सोचने के लिए प्रेरित किया। यह कॉलम इतना लोकप्रिय हो गया कि लोग अखबार का इंतज़ार करते थे।
हरिशंकर परसाई ने हिंदी साहित्य में व्यंग्य को न केवल एक विधा के रूप में स्थापित किया, बल्कि इसे सामाजिक बदलाव का हथियार बनाया। उनकी रचनाएँ स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं और शोधार्थियों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
हिंदी साहित्य जगत हमेशा उनके इस योगदान के लिए उनका ऋणी रहेगा।
उनकी कुछ प्रकाशित रचनाएँ जो हिंदी में व्यंग्य को समझने वाले लोगों को अवश्य पढ़नी चाहिए, हैं: 'हंसते हैं रोते हैं', 'जैसे उनके दिन फिरे', 'रानी नागफनी की कहानी', 'तट की खोज' (उपन्यास); 'तब की बात और थी', 'भूत के पांव पीछे', 'बेईमानी की परत', 'वैष्णव की फिसलन', 'पगडंडियों का जमाना', 'शिकायत मुझे भी है', 'सदाचार का ताबीज', 'विकलांग श्रद्धा का दौर', 'तुलसीदास चन्दन घिसैं', 'हम इक उम्र से वाकिफ हैं', 'निठल्ले की डायरी', 'आवारा भीड़ के खतरे', 'जाने पहचाने लोग', 'कहत कबीर' (व्यंग्य निबंध-संग्रह); 'पूछो परसाई से' (साक्षात्कार) हरिशंकर परसाई को केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार, मध्यप्रदेश का शिखर सम्मान आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
हिंदी साहित्य में उनके अमूल्य योगदान के लिए हर साल उनके जन्म जयंती पर 22 अगस्त को साहित्य अकादमी में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।