क्या लाल बहादुर शास्त्री भारत के शिल्पकार, सादगी और ईमानदारी की अनुपम मिसाल हैं?

सारांश
Key Takeaways
- लाल बहादुर शास्त्री का जीवन सादगी और ईमानदारी का प्रतीक है।
- उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- उनका नारा 'जय जवान, जय किसान' आज भी प्रेरणा देता है।
- शास्त्री जी ने हरित क्रांति की नींव रखी।
- उनकी मृत्यु ने देश को स्तब्ध कर दिया।
नई दिल्ली, 2 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जीवन आज भी लाखों भारतीयों के लिए प्रेरणास्त्रोत बना हुआ है। सादगी, त्याग और दृढ़ संकल्प की अद्भुत मिसाल शास्त्री जी का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय (अब पंडित दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन) में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
चार वर्ष की आयु में उन्होंने मुगलसराय के ईस्ट सेंट्रल रेलवे इंटर कॉलेज में दाखिला लिया, जहाँ मौलवी बुद्धन मियां उनके पहले गुरु बने।
बनारस के हरिश्चंद्र हाई स्कूल में शिक्षक निष्कामेश्वर प्रसाद मिश्र के प्रभाव में वे स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुए। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन (1921) ने उनके किशोर मन को झकझोर दिया। उन्होंने काशी विद्यापीठ में भी दाखिला लिया, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्थापित राष्ट्रीय संस्था थी। यहाँ उन्होंने दर्शनशास्त्र और नीतिशास्त्र में प्रथम श्रेणी से स्नातक किया और 'शास्त्री' उपाधि प्राप्त की।
स्वतंत्रता संग्राम में शास्त्री जी की भूमिका अडिग रही। 1921 से ही वे कांग्रेस से जुड़े और गांधीजी के नमक सत्याग्रह (1930) में सक्रिय भागीदारी की। उन्होंने ब्रिटिश जेलों में कुल नौ वर्ष बिताए, जहाँ उन्होंने पश्चिमी दार्शनिकों, क्रांतिकारियों और समाज सुधारकों की किताबें पढ़कर अपने विचारों को समृद्ध किया। जेल से बाहर आकर उन्होंने कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। उनकी देशभक्ति का प्रमाण यह था कि वे कभी पद या सत्ता के भूखे न रहे, बल्कि जनसेवा को अपना धर्म मानते थे।
1947 में भारत की आजादी के बाद शास्त्री जी का राजनीतिक सफर तेजी से बढ़ा। वे पहले उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव बने, फिर परिवहन एवं वित्त मंत्री। 1952 में नेहरू कैबिनेट में रेल मंत्री के रूप में उन्होंने भारतीय रेलवे को नई दिशा दी। लेकिन, 1956 के ट्रेन हादसे में 146 यात्रियों की मौत के बाद उन्होंने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया, जो राजनीतिक ईमानदारी की अनुपम मिसाल है। बाद में गृह मंत्री (1961-63) और वाणिज्य मंत्री के रूप में उन्होंने प्रशासनिक सुधारों को मजबूत किया।
उनके कार्यकाल में 1965 का मद्रास एंटी-हिंदी आंदोलन भी एक बड़ी चुनौती थी। हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के प्रयासों का विरोध दक्षिण भारत में हुआ, लेकिन शास्त्री जी ने संयम से स्थिति संभाली और भाषाई सद्भाव पर जोर दिया। उनकी सादगी कथाओं से भरी है। प्रधानमंत्री रहते वे साइकिल से बाजार जाते, धोती पहनते और सादा जीवन जीते थे। एक बार उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी, जिसमें मात्र कुछ किताबें और कपड़े थे।
9 जून 1964 को जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री भारत के दूसरे प्रधानमंत्री बने। उनका कार्यकाल मात्र 19 माह का था, लेकिन चुनौतियों से भरा रहा। 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध छिड़ गया। सीमाओं पर सैनिकों की वीरता और खाद्य संकट के बीच शास्त्री जी ने 'जय जवान, जय किसान' का नारा दिया, जो आज भी प्रासंगिक है।
इस नारे ने सेना का मनोबल बढ़ाया और किसानों को आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा दी। युद्ध के दौरान उन्होंने गेहूं उत्पादन बढ़ाने के लिए हरित क्रांति की नींव रखी, जबकि दूध उत्पादन को भी प्रोत्साहन दिया।
उनका जीवन छोटे-छोटे कार्यों में भी नैतिकता और पारदर्शिता का प्रतीक था। 11 जनवरी 1966 में ताशकंद समझौते के बाद उनकी रहस्यमयी मृत्यु ने देश को स्तब्ध कर दिया।