क्या 1971 भारत-पाक जंग के अमर नायक सैम मानेकशॉ ने बांग्लादेश के निर्माण में अहम भूमिका निभाई?

सारांश
Key Takeaways
- सैम मानेकशॉ का नेतृत्व 1971 के युद्ध में महत्वपूर्ण था।
- उन्होंने इंदिरा गांधी को सही समय पर निर्णय लेने की सलाह दी।
- मानेकशॉ की रणनीतिक बुद्धिमत्ता ने भारत को विजय दिलाई।
- उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
- उनका व्यक्तित्व सादगी और साहस का प्रतीक था।
नई दिल्ली, 26 जून (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय सेना के इतिहास में कुछ व्यक्तित्व ऐसे हैं, जो न केवल सैन्य और वीरता का प्रतीक हैं, बल्कि एक संपूर्ण युग का परिचायक भी हैं। इनमें से फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है।
उनके नेतृत्व में भारत ने 1971 के भारत-पाक युद्ध में ऐतिहासिक जीत हासिल की, जिसके फलस्वरूप बांग्लादेश का निर्माण हुआ। मानेकशॉ की रणनीतिक पराकाष्ठा और साहस ने उन्हें भारतीय सेना का एक अमर नायक बना दिया।
सैम हॉरमुसजी फेमजी जमशेदजी मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल, 1914 को पंजाब के अमृतसर में हुआ था। एक पारसी परिवार में जन्मे सैम ने देहरादून की भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) से प्रशिक्षण लिया और 1934 में ब्रिटिश भारतीय सेना में कमीशन प्राप्त किया। द्वितीय विश्व युद्ध में बर्मा मोर्चे पर उनकी वीरता ने उन्हें मिलिट्री क्रॉस दिलाया। घायल होने के बावजूद उन्होंने अपने सैनिकों का नेतृत्व किया, जो उनके अदम्य साहस को दर्शाता है।
1971 का युद्ध मानेकशॉ के नेतृत्व का स्वर्णिम अध्याय था। उस समय पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों के खिलाफ भारत ने हस्तक्षेप किया। मानेकशॉ ने न केवल सैन्य रणनीति तैयार की, बल्कि सरकार को समयपूर्व युद्ध शुरू करने से रोका, ताकि सेना पूरी तरह तैयार हो सके। उनकी यह दूरदर्शिता निर्णायक साबित हुई। केवल 13 दिनों में भारतीय सेना ने ढाका पर कब्जा कर लिया और 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया। यह युद्ध न केवल भारत की सैन्य क्षमता का प्रदर्शन था, बल्कि मानेकशॉ की रणनीतिक प्रतिभा का भी प्रमाण था।
मानेकशॉ और इंदिरा गांधी के बीच के कई प्रसिद्ध किस्से इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। एक कहानी यह है कि 27 अप्रैल 1971 को इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ते संकट और शरणार्थी समस्या पर चर्चा के लिए आपात बैठक बुलाई थी। उस समय पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना का दमन और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के कारण लाखों शरणार्थी भारत आ रहे थे, जिससे भारत पर भारी दबाव था।
इंदिरा गांधी ने इस संकट का समाधान करने के लिए भारतीय सेना से तात्कालिक हस्तक्षेप का आग्रह किया। हालांकि, मानेकशॉ ने इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि सेना अभी युद्ध के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि पर्याप्त सैन्य तैयारी, हथियार और रसद की कमी थी। इसके अलावा, मानसून का मौसम और हिमालयी क्षेत्रों में सैन्य तैनाती की चुनौतियां थीं। मानेकशॉ ने कहा कि यदि बिना तैयारी के युद्ध में उतरे, तो भारत को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। उन्होंने इंदिरा से समय मांगा और वादा किया कि जब सेना पूरी तरह तैयार होगी, तब वह युद्ध के लिए सही समय बताएंगे।
मानेकशॉ की इस स्पष्टवादिता ने इंदिरा गांधी को प्रभावित किया और उन्होंने उनकी बात मान ली। मानेकशॉ ने बाद में सेना को तैयार किया और दिसंबर 1971 में भारत ने युद्ध प्रारंभ किया, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का निर्माण हुआ। यह घटना मानेकशॉ की रणनीतिक बुद्धिमत्ता और नेतृत्व का एक अद्भुत उदाहरण है।
मानेकशॉ का व्यक्तित्व उनकी सादगी के लिए जाना जाता है। वह सैनिकों के बीच 'सैम बहादुर' के नाम से लोकप्रिय थे। उनकी नेतृत्व शैली में अनुशासन और मानवता दोनों का समावेश था। वह सैनिकों की समस्याओं को समझते थे और उनका मनोबल बढ़ाने में माहिर थे। युद्ध के बाद भी उन्होंने सैनिकों के कल्याण और सेना के आधुनिकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
मानेकशॉ को भारत सरकार ने 1972 में पद्म विभूषण और बाद में फील्ड मार्शल की उपाधि से सम्मानित किया, जो भारत में किसी सैन्य अधिकारी को दी जाने वाली सर्वोच्च उपाधि है। 27 जून, 2008 को उनका निधन हुआ।