संविधान से पहले देश में शासन प्रक्रिया कैसी थी?
सारांश
Key Takeaways
- संविधान से पहले का शासन धर्म पर निर्भर था।
- राजा की आवश्यकता ने शासन की नई प्रक्रिया को जन्म दिया।
- संविधान लोगों के हितों की रक्षा करता है।
पानीपत, 6 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने शनिवार को ‘भारतीय इतिहास, संस्कृति और संविधान’ कार्यक्रम में यह बताया कि संविधान से पहले देश में शासन की प्रक्रिया किस प्रकार की थी। यह कार्यक्रम हरियाणा के पानीपत में आयोजित किया गया।
संघ प्रमुख ने संबोधन में कहा कि आज हमारे पास संविधान है, जिसके माध्यम से देश का शासन चलता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जब संविधान नहीं था, तो शासन का क्या हाल था? उस समय देश का शासन धर्म के आधार पर संचालित होता था, क्योंकि तब मनुष्य पथभ्रष्ट नहीं हुआ था। जब मनुष्य ने रास्ता भटकना शुरू किया, तभी लोगों को संविधान की आवश्यकता महसूस हुई। आज हम उसी संविधान के आधार पर शासन प्रक्रियाओं का संचालन कर रहे हैं। प्राचीन काल में देश का शासन धर्म से होता था, मेरा धर्म से तात्पर्य किसी धर्म विशेष से नहीं है, बल्कि यह एक विचारधारा है।
उन्होंने कहा कि प्राचीन समय में धर्म के आधार पर शासन होता था, जहां सभी लोग एक-दूसरे के विकास की सोच रखते थे। लोगों का मानना था कि यदि समाज का संपूर्ण विकास चाहिए, तो एक-दूसरे की समृद्धि पर ध्यान देना जरूरी है। इसी सिद्धांत पर देश का शासन चलता था, लेकिन स्थिति बदलने पर लोगों को राजा की आवश्यकता महसूस हुई। तभी शासन की एक नई प्रक्रिया का उदय हुआ।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आगे कहा कि इसके बाद राजा के सामने यह प्रश्न आया कि वह देश को कैसे चलाएगा? यहीं से विधि व्यवस्था की शुरुआत हुई, जिसमें यह निर्धारित किया गया कि शासन की प्रक्रिया कैसी होगी और लोगों की जरूरतों को कैसे पूरा किया जाएगा। यह सुनिश्चित करने के लिए नियमों का संग्रहण किया गया, जिसे संविधान कहा गया। यह लोगों के हितों की रक्षा के लिए आवश्यक था।
कार्यक्रम में उपस्थित गजेंद्र सिंह शेखावत ने कहा कि आज भारतीय इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता है। 50 साल पहले किसी ने भी नहीं सोचा था कि भारत पुर्नजागरण के दौर से गुजरेगा। इसलिए भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन आवश्यक है।
प्रो. राघुवेंद्र तंवर ने बताया कि संविधान को समझने के लिए भारत और उसकी संस्कृति को समझना आवश्यक है। विभाजन ने भारतीय समाज को बिखेर दिया।
गोपाल नारायण सिंह ने कहा कि हजारों वर्षों के आक्रमण से इतिहास बिखर गया है, लेकिन संकलन के प्रयास से इसे पुनः लिखने का प्रयास किया जा रहा है, जो कि सराहनीय है।
देवी प्रसाद सिंह ने ‘यदि संविधान की वाणी होती’ विषय पर अपनी कविता से स्पष्ट किया कि संविधान को भारतीय संस्कृति से अलग नहीं देखा जा सकता।