क्या श्यामलाल गुप्त ने देश को आजादी मिलने तक नंगे पांव रहने का प्रण लिया?

सारांश
Key Takeaways
- श्यामलाल गुप्त ने आजादी के लिए नंगे पांव रहने का प्रण लिया।
- उन्होंने झंडा गीत 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' लिखा।
- वे नमक आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे।
- उन्होंने महिला शिक्षा और विधवा विवाह के लिए काम किया।
- उन्हें पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
नई दिल्ली, 15 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। जब भी स्कूलों, सरकारी समारोहों और राष्ट्रीय उत्सवों पर गाया जाने वाला गीत 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा' कानों में गूंजता है, दिल देशभक्ति से भर जाता है। यह गीत तिरंगे की महिमा का गुणगान करने के साथ ही राष्ट्र की आत्मा को भी समाहित करता है। इस गाने को प्रसिद्ध कवि और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' ने लिखा था।
इस गाने ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जन-जन में देशभक्ति की भावना को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज हम जानेंगे कि श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' किस प्रकार ‘नमक आंदोलन’ और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से जुड़े और आजादी के लिए संघर्ष कर रहे लोगों में राष्ट्र प्रेम की अलख जलाने के लिए झंडा गीत लिखा। उनका जन्म 16 सितंबर 1896 को उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ था।
वह उन साहित्यकारों और देशभक्तों में शामिल हैं जिन्होंने ब्रिटिश राज से भारत को आजाद कराने के लिए कलम से क्रांति की। उन्होंने कई राष्ट्रभक्ति गीत और कविताएं लिखीं, जिनमें स्वदेश प्रेम, त्याग, बलिदान और स्वतंत्रता की भावना गहराई से झलकती है।
श्यामलाल गुप्त केवल एक कवि ही नहीं, बल्कि एक समर्पित समाज सुधारक और शिक्षक भी थे। उनके लेखन में सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों के प्रति गहरी चेतना झलकती थी। उनके बचपन की एक घटना ने उन्हें गहरी चोट पहुंचाई। 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने रामकथा के बालकांड पर एक पांडुलिपि लिखी, जिसे उनके पिता ने यह सोचकर कुएं में फेंक दिया कि कवि का जीवन हमेशा गरीबी से भरा होता है। इस घटना के बाद श्यामलाल गुप्त ने घर छोड़ दिया और आगरा चले गए। बाद में उन्हें वापस लाने के लिए मनाया गया।
उन्होंने दो बार शिक्षक के रूप में कार्य किया, लेकिन जब बॉन्ड भरने की बात सामने आई, तो उन्होंने नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वे आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। गणेशशंकर विद्यार्थी और साहित्यकार प्रताप नारायण मिश्र के सानिध्य में उन्होंने जनसेवा में जुटने का निर्णय लिया। उन्होंने ‘नमक आंदोलन’, ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ और ‘असहयोग आंदोलन’ में भाग लिया और इस दौरान आठ बार जेल गए। ब्रिटिश काल में उन्होंने कुल छह वर्षों तक राजनीतिक बंदी के रूप में समय बिताया।
स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के दौरान श्यामलाल मोतीलाल नेहरू के संपर्क में आए। 1921 में उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पांव रहने का व्रत लिया और उसे निभाया। इस दौरान वे कविताएं भी लिखते रहे। गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा से उन्होंने मार्च 1924 में सिर्फ एक रात में झंडा गीत 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' लिखा।
13 अप्रैल 1924 को पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में 'जलियांवाला बाग दिवस' पर कानपुर के फूलबाग में सार्वजनिक रूप से झंडागीत गाया गया, और तब से लेकर आज तक यह गीत देशवासियों में जोश भरता आ रहा है।
श्यामलाल की लेखनी कितनी धारदार थी, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1924 में उन्होंने एक असामाजिक व्यक्ति पर व्यंग्य रचना की, जिसके लिए उन पर 500 रुपये का जुर्माना लगाया गया था।
उन्होंने महिला शिक्षा और दहेज विरोध में सक्रिय योगदान दिया। विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
एक बार श्यामलाल को आकाशवाणी से कविता पाठ के लिए बुलाया गया। प्रसारण से पहले जब अधिकारी ने कविता पढ़ी, उसके बाद कविता पाठ रोक दिया गया। दरअसल, कविता में लिखे कुछ शब्दों से अधिकारी को ऐतराज था। कविता की वह लाइन थी- सिंह यहां पंचानन मरते और स्यार स्वच्छंद विचरते, छक कर गधे खिलाए खाते, घोड़े बस खुजलाए जाते। कविता पाठ रोकने से नाराज श्यामलाल फिर कभी आकाशवाणी केंद्र नहीं गए।
स्वतंत्र भारत में श्यामलाल ने 1952 में लाल किले से अपना प्रसिद्ध ‘झंडा गीत’ गाया। 1973 में उन्हें ‘पद्म श्री’ सम्मान से नवाजा गया। 10 अगस्त 1977 को उनका निधन हो गया, उनकी उम्र 81 वर्ष थी।