क्या स्मिता पाटिल कैमरे की 'वन टेक क्वीन' थीं?
सारांश
Key Takeaways
- स्मिता पाटिल का अभिनय कौशल अद्वितीय था।
- उन्हें 'वन टेक क्वीन' कहा जाता था।
- उन्होंने सादगी और प्राकृतिकता के साथ अभिनय किया।
- उनका करियर केवल 10 वर्षों का था लेकिन प्रभाव गहरा था।
- स्मिता का निधन युवा उम्र में हुआ।
मुंबई, 12 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। हिंदी सिनेमा में कुछ ऐसे चेहरे हैं जिनकी मौजूदगी उनके जाने के बाद भी महसूस होती है। स्मिता पाटिल ऐसा ही एक नाम हैं। उनके अभिव्यक्ति और डायलॉग बोलने का अनोखा तरीका उन्हें अन्य अभिनेत्रियों से अलग करता था। सिनेमा में उनका कार्यकाल भले ही छोटा था, लेकिन उन्होंने दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ी।
उन्होंने अपने करियर की शुरुआत न्यूज रीडर के रूप में की, जहां वह आत्मविश्वास और सहजता के साथ कैमरे का सामना करती थीं। यही कैमरा उनके करियर का सबसे बड़ा साथी बन गया। फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद, उन्होंने अपने हुनर को साबित किया और पूरे उत्साह के साथ शूटिंग की। उन्हें ‘वन टेक क्वीन’ भी कहा जाता था।
स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर 1955 को पुणे में एक राजनीतिक परिवार में हुआ था, जहां उनके पिता महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे और मां एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। बचपन से उन्हें अभिनय, नाटक और नृत्य में रुचि थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने दूरदर्शन में न्यूज रीडर के रूप में काम शुरू किया। उनके बोलने के अंदाज, कैमरे के सामने की सहजता और आत्मविश्वास ने निर्देशक श्याम बेनेगल का ध्यान खींचा। उन्होंने स्मिता को अपनी फिल्म ‘चरणदास चोर’ में कास्ट किया और यहीं से उनका फिल्मी करियर प्रारंभ हुआ।
जब स्मिता ने सिनेमा में कदम रखा, उस समय ग्लैमर्स अभिनेत्रियों का बोलबाला था, लेकिन उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। वह मेकअप से बचती थीं और सादगी से भरे कपड़े पहनती थीं। कैमरे के सामने वह बहुत प्राकृतिक नज़र आती थीं। वह अक्सर अपना शॉट एक ही टेक में पूरा कर लेती थीं, जो कि निदेशकों को आश्चर्यचकित कर देता था। श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, और मृणाल सेन जैसे दिग्गज फिल्मकारों का कहना था कि स्मिता को अभिनय समझाना ऐसा है जैसे सूरज को रोशनी का मतलब समझाना।
फिल्म ‘भूमिका’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जो 1977 में रिलीज हुई। यह फिल्म बेहद भावनात्मक थी, लेकिन स्मिता ने इसमें अपने किरदार को इतनी मजबूती से निभाया कि दर्शक आज भी उन्हें नहीं भूल पाए। फिल्म ‘मंथन’ में उनका गांव की महिला का किरदार इतना स्वाभाविक था कि दर्शक मानने लगे कि वह सच में उसी गांव की निवासी हैं। ‘आखिर क्यों’, ‘चक्र’, ‘अर्थ’, ‘मिर्च मसाला’ जैसी कई फिल्मों में उन्होंने कठिन से कठिन सीन एक ही टेक में पूरे कर दिए। कई बार ऐसा भी होता था कि अन्य कलाकार रिहर्सल कर रहे होते थे और स्मिता शांत बैठकर सीन के भावों को समझ रही होती थीं। कैमरा ऑन होते ही वह बिल्कुल अलग इंसान बन जाती थीं।
उनका करियर केवल 10 वर्षों का था, लेकिन इस दौरान उन्होंने कई पुरस्कार जीते। 1980 में ‘भूमिका’ के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और 1985 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। 13 दिसंबर 1986 को महज 31 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।