क्या चित्रगुप्त श्रीवास्तव हिंदी फिल्म संगीत के अद्भुत रचनाकार हैं?
सारांश
Key Takeaways
- संघर्ष और साधना से सफलता संभव है।
- पारंपरिक लोक संगीत का महत्व है।
- भोजपुरी सिनेमा में योगदान महत्वपूर्ण है।
- संगीत का जादू हर दिल को छूता है।
- चित्रगुप्त का योगदान अद्वितीय है।
मुंबई, 16 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम युग में चित्रगुप्त श्रीवास्तव का नाम एक अदृश्य सितारे की तरह चमकता रहा। 16 नवंबर 1917 को बिहार के गोपालगंज में जन्मे इस प्रतिभाशाली संगीतकार की जयंती हर वर्ष संगीत प्रेमियों को उनकी सादगी से भरी अद्भुत धुनों की याद दिलाती है।
पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के बाद, चित्रगुप्त ने मुंबई की मायानगरी में प्रवेश किया और ‘बी’ और ‘सी’ ग्रेड फिल्मों के माध्यम से संगीत की दुनिया में एक अमिट छाप छोड़ी। उनके सांस्कृतिक जड़ें बिहार की देशज लोक-परंपरा से जुड़ी थीं, जिसका हल्का-सा स्पर्श उनके हर गीत में महसूस किया जा सकता है, और यही उनकी विशेषता भी रही।
चित्रगुप्त ने पंडित शिवप्रसाद त्रिपाठी से शास्त्रीय संगीत की औपचारिक शिक्षा ग्रहण की और लखनऊ स्थित भातखंडे संगीत विद्यालय में रियाज भी किया। हालांकि, संगीत समीक्षकों ने उन्हें पहले पायदान के दिग्गजों में शायद ही कभी गिनती में रखा। उनके लोक से जुड़ी और मेलोडी रचनाओं ने साबित कर दिया कि वह लोक-रंग को बघार गीतों को अतिरिक्त कोमलता देने वाले कलाकार हैं।
संघर्ष के बावजूद, उन्होंने 100 से अधिक फिल्मों में संगीत दिया। उनकी प्रारंभिक फिल्मों में ‘तूफान क्वीन’, ‘इलेवन ओ क्लॉक’, ‘भक्त पुंडलिक’, ‘नाग पंचमी’, ‘भक्त पुराण’, ‘जोड़ीदार’, ‘नया रास्ता’, ‘हमारी शान’, ‘स्टंट क्वीन’, ‘लेडी रॉबिनहूड’, ‘जय हिंद’, ‘जोकर’, 'दिल्ली एक्सप्रेस', 'शेकहैंड' शामिल हैं। इनमें से अधिकांश ‘बी’ ग्रेड थीं, लेकिन हर फिल्म में उन्होंने मेलोडी की विशेष छाप छोड़ी। उनके अमर गीतों की झलक ‘काली टोपी लाल रुमाल’ के "लागी छूटे ना अब तो सनम", ‘बर्मा रोड’, ‘दगाबाज हो बांके पिया’ जैसे गानों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
चित्रगुप्त ने लता मंगेशकर, मुकेश, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, महेंद्र कपूर, आशा भोसले, और उषा मंगेशकर जैसी महान आवाज़ों को स्वरबद्ध किया। उनके हर गीत में लोक का हल्का रंग और शास्त्रीय आधार रचनाओं को और भी खास बनाता था।
बॉलीवुड के साथ-साथ, उन्होंने भोजपुरी सिनेमा को भी नई पहचान दी। गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो जो 1962 में आई थी, भोजपुरी की पहली फिल्म थी जिसने सिनेमा की दुनिया में तहलका मचाया। इसके अलावा ‘लागी नाहीं छूटे राम’, ‘भौजी’, ‘गंगा’ में उनका लोक-तत्व साफ-साफ झलकता है। इन फिल्मों के गीत आज भी बिहार-यूपी के गांवों में गूंजते हैं।
चित्रगुप्त के पुत्र आनंद-मिलिंद ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया और कई सफल फिल्मों में उनकी जोड़ी ने वही मेलोडी का जादू बिखेरा।