क्या नवंबर की उस सुबह ने रावलपिंडी को जागृत किया और पाकिस्तान का इतिहास बदल दिया?
सारांश
Key Takeaways
- रावलपिंडी में छात्रों का मार्च एक ऐतिहासिक घटना थी।
- यह आंदोलन लोकतंत्र की मांग का प्रतीक बना।
- अय्यूब खान की सरकार को इसने हिलाकर रख दिया।
- फैज अहमद फैज के शब्दों ने आंदोलन को ऊर्जा दी।
- इसने पाकिस्तान के भविष्य की दिशा तय की।
नई दिल्ली, ६ नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। गुलाबी ठंड ने दस्तक दे दी थी। सुबह की ठंडी हवा में धुंध छाने लगी थी। रावलपिंडी के गॉर्डन कॉलेज के गेट के बाहर सैकड़ों छात्र इकट्ठा थे। उनके हाथों में तख्तियां थीं, जिन पर लिखा था- रोटी, आजादी और इन्साफ! और उनके दिलों में एक उबाल था। कोई एक बोलता - 'अय्यूब खान हाय-हाय!', तो बाकी भीड़ एक स्वर में उत्तर देती 'जम्हूरियत जिंदाबाद!'
यह ७ नवंबर १९६८ की सुबह थी, जब पाकिस्तान की सड़कों पर पहली बार सत्ता के खिलाफ एक जनसैलाब उमड़ा। यह सिर्फ गुस्से की आवाज नहीं थी, बल्कि एक पूरे युग के परिवर्तन का संकेत था। यह वही आंदोलन था जिसने पाकिस्तान की राजनीति की दिशा बदल दी, और आगामी वर्षों में जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे नेताओं को जनता की आवाज बना दिया।
उस समय पाकिस्तान में जनरल अय्यूब खान का शासन था, जिन्होंने १९५८ में सेना के बल पर सत्ता पर कब्जा किया। शुरुआत में उन्हें 'विकास का प्रतीक' माना गया, लेकिन १९६० के अंत तक उनकी आर्थिक नीतियों ने असमानता को बढ़ा दिया। शहरों में उद्योगपतियों की दौलत और गांवों में बढ़ती गरीबी ने जनता को आंतरिक रूप से तोड़ दिया।
छात्रों का यह मार्च धीरे-धीरे रावलपिंडी शहर की गलियों में फैलता गया। दुकानदारों ने शटर गिरा दिए, राह चलते लोगों ने झंडे थाम लिए, और सड़कें नारों से भर गईं। पुलिस ने पहले लाठीचार्ज किया, फिर आंसू गैस का प्रयोग किया, और अंततः गोली चली। एक युवक की मौत हो गई और उसी क्षण यह प्रदर्शन एक राष्ट्रीय आंदोलन में परिवर्तित हो गया।
उस दिन के बाद प्रदर्शन केवल छात्रों तक सीमित नहीं रहे। कराची, लाहौर, पेशावर और ढाका तक आंदोलन फैल गया। फैक्ट्री के मजदूर, पत्रकार, कलाकार सभी ने नारे बुलंद किए। यह वह समय था जब पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान एक ही मांग में एकजुट हुए - 'लोकतंत्र चाहिए।'
इसी दौरान उर्दू के महान शायर फैज अहमद फैज के शब्दों ने आंदोलन की आत्मा को आवाज दी। उनके शब्द, 'बोल कि लब आजाद हैं तेरे' हर सभा में गूंजने लगे। फैज की पंक्तियां छात्रों के झंडों पर लिखी जाने लगीं, और रावलपिंडी की सड़कों पर शायरी और क्रांति एक हो गईं।
राजनीतिक हलचल ने जुल्फिकार अली भुट्टो को जनता का चेहरा बना दिया। वही आंदोलन जिसने अय्यूब खान के शासन को हिला दिया, आगे चलकर १९७० के चुनावों का रास्ता खोल गया।
अय्यूब खान ने आंदोलन को 'विद्रोह' बताया, लेकिन देश अब उनके खिलाफ खड़ा हो चुका था। फरवरी १९६९ तक विरोध इतना तीव्र हो गया कि उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। सत्ता जनरल याह्या खान के हाथों में गई, जिन्होंने चुनाव करवाए और इन चुनावों ने शेख मुजीबुर रहमान को पूर्वी पाकिस्तान में भारी जीत दिलाई, जिसने १९७१ में बांग्लादेश के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया।