क्या विजयादशमी पर असुर जनजाति के लिए है शोक?

सारांश
Key Takeaways
- असुर जनजाति विजयादशमी को शोक मनाती है।
- महिषासुर इस जनजाति के आराध्य हैं।
- झारखंड और पश्चिम बंगाल में असुर जनजाति की विशेष परंपराएँ हैं।
- इस जनजाति की धार्मिक मान्यताएँ भिन्न हैं।
- असुर जनजाति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि महत्वपूर्ण है।
रांची, 2 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। विजयादशमी-दशहरा के अवसर पर जब देशभर में भक्ति, उल्लास और आनंद का माहौल होता है, तब झारखंड और पश्चिम बंगाल में निवास करने वाली असुर जनजाति के लिए यह एक शोक का समय है।
महिषासुर इस जनजाति के आराध्य पितृपुरुष माने जाते हैं। इस समुदाय का मानना है कि महिषासुर ही धरती के राजा थे, जिनका संहार छलपूर्वक किया गया।
यह जनजाति महिषासुर को ‘हुड़ुर दुर्गा’ के रूप में पूजती है। नवरात्र से लेकर दशहरा तक यह जनजाति शोक मनाने में व्यस्त रहती है। इस दौरान कोई भी शुभ कार्य करना अशुभ समझा जाता है। हाल के समय तक, नवरात्रि से लेकर दशहरा के दिन तक, असुर जनजाति के लोग घर से बाहर निकलने से परहेज करते थे।
झारखंड के गुमला, लोहरदगा, पलामू और लातेहार जिलों के साथ-साथ पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, मिदनापुर और कुछ अन्य क्षेत्रों में इनकी संख्या काफी है। पश्चिम मिदनापुर जिले के केंदाशोल और आसपास के कई गांवों के लोग सप्तमी की शाम से दशमी तक महिषासुर की मूर्ति ‘हुदुड़ दुर्गा’ की पूजा करते हैं।
दूसरी तरफ, झारखंड के असुर इस दौरान महिषासुर की मूर्ति नहीं बनाते, लेकिन दीपावली की रात, मिट्टी का छोटा पिंड बनाकर महिषासुर और अपने सभी पूर्वजों को याद करते हैं। असुर समाज का मानना है कि महिषासुर ने महिलाओं पर हथियार नहीं उठाए थे, इसीलिए देवी दुर्गा को आगे कर उनकी छल से हत्या की गई। यह जनजाति गुमला जिले के डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम को महिषासुर का शक्ति स्थल मानती है।
गुमला जिले के बिशुनपुर, डुमरी, घाघरा, चैनपुर और लातेहार जिले के महुआडाड़ प्रखंड के लोग भैंसा की पूजा करते हैं। मानव विज्ञानियों ने असुर जनजाति को प्रोटो-आस्ट्रेलाइड समूह में रखा है। ऋग्वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद्, महाभारत आदि ग्रंथों में असुर शब्द का उल्लेख किया गया है। मुण्डा जनजाति की लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में भी असुरों का उल्लेख मिलता है। प्रसिद्ध इतिहासकार और पुरातत्व विज्ञानी बनर्जी और शास्त्री ने असुरों की वीरता का वर्णन करते हुए कहा है कि वे पूर्ववैदिक काल से लेकर वैदिक काल तक एक शक्तिशाली समुदाय के रूप में स्थापित थे।
देश के प्रमुख एथनोलॉजिस्ट एससी राय ने लगभग 80 वर्ष पहले झारखंड में असुरों के किलों और कब्रों की खोज की थी। असुर हजारों वर्षों से झारखंड में निवास कर रहे हैं और उन्हें भारत में सिन्धु सभ्यता के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। राय ने भी असुरों को मोहनजोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति से जोड़ा है। इसके साथ ही, उन्हें ताम्र, कांस्य और लौह युग का सहयात्री माना गया है।
यह ध्यान देने योग्य है कि झारखंड में असुर जनजाति आज भी मिट्टी से पारंपरिक तरीके से लोहे के सामान बनाती है। जिस प्रकार महिषासुर को असुर जनजाति अपना आराध्य मानती है, उसी प्रकार संताल परगना प्रमंडल के गोड्डा, राजमहल और दुमका के इलाकों में अन्य जनजातियां रावण को अपना पूर्वज मानती हैं। इन क्षेत्रों में रावण वध की परंपरा नहीं है और न ही नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा होती है।