क्या आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि विशेष है? भगवान जगन्नाथ नगर भ्रमण पर निकलते हैं

सारांश
Key Takeaways
- जगन्नाथ रथ यात्रा एक महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सव है।
- यह हर वर्ष आषाढ़ मास की द्वितीया तिथि पर होती है।
- भगवान जगन्नाथ के साथ बलभद्र और सुभद्रा भी यात्रा में शामिल होते हैं।
- गुंडिचा मंदिर यात्रा का गंतव्य है।
- यह पर्व भक्ति और सामाजिक समरसता का प्रतीक है।
नई दिल्ली, 26 जून (राष्ट्र प्रेस)। आषाढ़ मास की द्वितीया तिथि पर भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं। शुक्रवार, 27 जून, 2025 को जगन्नाथ रथ यात्रा का पर्व मनाया जाएगा।
दृक पंचांग के अनुसार, 27 जून को आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि है। सूर्योदय सुबह 5:09 और सूर्यास्त शाम 6:52 बजे होगा। इस विशेष दिन नाथ जगन्नाथ अपने भाई और बहन के साथ नगर भ्रमण पर निकलेंगे।
भारत के ओडिशा राज्य का पुरी नगर हर वर्ष एक अनूठे और विशाल धार्मिक उत्सव का साक्षी बनता है, जिसे 'जगन्नाथ रथ यात्रा' कहा जाता है। यह पर्व हिन्दू धर्म की समृद्ध परंपरा, भक्ति और सामाजिक समरसता का प्रतीक है।
रथ यात्रा का मुख्य उद्देश्य भगवान जगन्नाथ का अपने भक्तों के बीच वार्षिक भ्रमण है। इस दिन भगवान अपने भाई-बहन के साथ विशाल रथों पर सवार होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं। यात्रा का गंतव्य गुंडिचा मंदिर होता है, जिसे राजा इन्द्रद्युम्न की पत्नी रानी गुंडिचा ने बनवाया था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान कुछ दिनों तक इसी मंदिर में निवास करते हैं। इस दौरान भक्तगण उन्हें न केवल रथों को खींचकर सम्मान देते हैं, बल्कि सजीव भक्ति का दर्शन भी कराते हैं।
रथ यात्रा से एक दिन पहले गुंडिचा मंदिर की विशेष सफाई और सजावट की जाती है। इसे ‘गुंडिचा मार्जन’ कहा जाता है। इसमें भगवान के भक्त पूरे उत्साह के साथ भाग लेते हैं, जिससे मंदिर को भक्ति और पवित्रता का प्रतीक बनाया जाता है।
रथ यात्रा के चौथे दिन एक और महत्वपूर्ण परंपरा ‘हेरा पंचमी’ का आयोजन होता है। इस दिन देवी लक्ष्मी अपने पति भगवान जगन्नाथ की खोज में गुंडिचा मंदिर जाती हैं। यह एक विशेष सांस्कृतिक और धार्मिक दृश्य होता है, जो भगवान और देवी के रिश्ते की गहराई को दर्शाता है।
गुंडिचा मंदिर में आठ दिन व्यतीत करने के बाद भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा पुनः अपने मुख्य मंदिर लौटते हैं। इस वापसी को ‘बहुदा यात्रा’ कहा जाता है। वापसी के मार्ग में भगवान एक विशेष स्थान पर ठहरते हैं, जिसे 'मौसी मां मंदिर' के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर देवी अर्धाशिनी को समर्पित है और इसका धार्मिक महत्व बहुत गहरा है।
भगवान जगन्नाथ की यह यात्रा देवशयनी एकादशी से पहले समाप्त हो जाती है, क्योंकि इसके बाद वे चातुर्मास के चार महीनों के लिए योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं। यह समय आध्यात्मिक साधना, संयम और सेवा का माना जाता है।
पुरी की रथ यात्रा केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक उत्सव भी है। इसमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु और पर्यटक भाग लेते हैं। विदेशी श्रद्धालु इसे ‘पुरी कार फेस्टिवल’ के नाम से भी जानते हैं। यह पर्व न केवल भक्ति की शक्ति को दर्शाता है, बल्कि यह सामाजिक एकता, समर्पण और सांस्कृतिक धरोहर का अनुपम उदाहरण भी है।
पुरी की रथ यात्रा, भक्ति और भव्यता का ऐसा संगम है, जो हर वर्ष श्रद्धालुओं के मन में आस्था की नई ज्योति प्रज्वलित करता है। यह पर्व युगों से न केवल धर्म का प्रतिनिधित्व करता रहा है, बल्कि मानवता की साझा विरासत का प्रतीक भी बन चुका है।